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________________ से यह अर्थ निकला कि बाल अर्थात् मूर्ख जिस प्रकार के कर्म करता है उसी प्रकार की उसकी मृत्यु होती है। अब कामभोगासक्त पुरुष की विचारणा और उसके कर्म विपाक के विषय में कहते हैंजे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छइ । न मे दिट्ठे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रई ॥ ५ ॥ यो गृद्धः कामभोगेषु एकः कूटाय गच्छति । न मया दृष्टः परो लोकः, चक्षुदृष्टेयं रतिः ॥ ५ ॥ पदार्थान्वयः—–जे–जो, गिद्धे —–मूर्च्छित, कामभोगेसु –— काम-भोगों में, एगे – कोई एक, कूडाय—कूट अर्थात् नरक में, गच्छइ — जाता है, न – नहीं, मे—मैंने, दिट्ठे—–देखा, परे लोएपरलोक, चक्खुदिट्ठा— चक्षुदृष्ट, इमा—यह, रई — रति है । मूलार्थ — जो पुरुष काम-भोगों में आसक्त है वह नरक को जाता है, परन्तु वह कहता है कि परलोक तो मैंने देखा ही नहीं और यह कामभोगादि विषयक जो रति — आनन्द है वह चक्षु दृष्ट अर्थात् अनुभव-सिद्ध एवं प्रत्यक्ष है । टीका - इस गाथा में काम - भोगादि विषयों में अत्यन्त आसक्ति रखने वाले पुरुष के जघन्य विचारों और उसकी विषयासक्ति के भावी फलोदय का दिग्दर्शन कराया गया है। जो व्यक्ति शब्द, स्पर्शादि रूप काम-भोगों में अत्यन्त मूर्च्छित है, वह नरक में ही जाता है, क्योंकि विषयों में बढ़ी हुई अत्यन्त आसक्ति के कारण उसके विवेक-चक्षु बिल्कुल बन्द हो जाते हैं। इसी कारण उसको न तो कोई परलोक ही नजर आता है और न ही शुभाशुभ कर्मों के फल की ओर ही उसका ध्यान जाता है, किन्तु ऐहिक विषय-भोगों को ही वह अपने जीवन का एक मात्र सार समझता हुआ उनमें ही लीन. रहता है। यदि कोई विचारशील आस्तिक पुरुष उसे उपदेश दे कि 'हे भद्र! तू इस प्रकार के असाधु जनोचित कर्मों का आचरण करना छोड़ दे, तेरे जैसे भद्र पुरुष को इस प्रकार के अनुचित काम शोभा नहीं देते। भद्र पुरुषों को तो वे ही काम करने चाहिएं जिनका परलोक में सुन्दर फल मिले, इन कर्मों का फल तो नरक है । ' तब इसके उत्तर में वह यह कहने लगता है कि 'परलोक तो मैंने कभी देखा ही नहीं, अतः उसको मानना या उस पर विश्वास करना केवल मूर्खता ही है और काम- भोगादि विषयों में जो सुख है वह प्रत्यक्ष है। इस प्रत्यक्ष सिद्ध सुख का परित्याग करके काल्पनिक सुख की आशा करना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है, इसलिए मैं नहीं चाहता कि इस प्राप्त हुए विषय - जन्य सत्य सुख को छोड़कर किसी के उपदेश से असिद्ध, अप्रसिद्ध, पारलौकिक सुख-विशेष की आशा करूं। अगर सच पूछा जाए तो ' - भोगादि विषयही सुख के मूल साधन हैं, इन्हीं में वास्तविक सुख निहित है । ' इत्यादि । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 200 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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