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मृत्यु के समीप आने पर वे पंडित पुरुष बड़े प्रसन्न होते हैं और कायरों की तरह मृत्यु से कदापि भयभीत नहीं होते, किन्तु शूरवीरों की तरह बड़े चाव से वे मृत्यु देवी का स्वागत करते हैं। वास्तव में मृत्यु का भय तो उसी आत्मा को होता है जिसने कि आगे के लिए पाथेय रूप किसी सुकृत का सञ्चय न किया हो। भला जिन भव्य आत्माओं ने अपने जीवन में अधिक-से-अधिक पुण्य संचित कर रखा हो, उनको भय किस बात का ? अतः सकाम मृत्यु वाले पंडित पुरुषों के लिए मृत्यु का आगमन एक हर्ष का स्थान होता है ।
इस गाथा में आए हुए ‘तु' शब्दों में से पहला 'तु' निश्चयार्थक और दूसरा विशेषार्थक है। अब प्रथम स्थान — बालमरण के विषय में कहते हैं—
तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं । कामगिद्धे जहा बाले, भिसं कूराई कुव्व ॥ ४ ॥ तत्रेदं प्रथमं स्थानं, महावीरेण देशितम् । कामगृद्धो यथा बालः, भृशं क्रूराणि करोति || ४ ||
पदार्थान्वयः—–— तत्थ — वहां — उन दोनों स्थानों में, इमं —– यह, पढमं - प्रथम, ठाणं - स्थान, महावीरेण —– महावीर स्वामी ने देसियं — प्रतिपादन किया है, कामगिद्धे — काम में मूर्च्छित हुआ, जहा - जैसे, बाले—बाल, भिसं— अतिशय, कूराई — क्रूर कर्म, कुव्वइ — करता है ।
मूलार्थ -- इन दोनों स्थानों में यह प्रथम स्थान श्री महावीर स्वामी ने प्रतिपादन किया है, काम में मूर्च्छित हुआ मूढ व्यक्ति जिस प्रकार अतिक्रूर कर्म करता है उसी प्रकार अज्ञानी जीव अकाम-मृत्यु को प्राप्त करता है ।
टीका -- अकाम और सकाम इन दोनों प्रकार की मृत्युओं में से पहली अकाम-मृत्यु का वर्णन भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार किया है। जो अज्ञानी जीव काम-वासनाओं में अत्यन्त आसक्ति रखने वाले हैं और हिंसा आदि अतिक्रूर कर्मों का आचरण करने वाले हैं उन्हीं को यह मृत्यु प्राप्त होती है। जैसे अबोध बालक अपने हित और अहित को नहीं जानता उसी प्रकार अज्ञानी जीव भी अपने हित का कुछ भी विचार न करता हुआ हिंसा आदि क्रूर कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है, जिसका कि फल अकाम-मृत्यु है। तथा जैसे तन्दुल नाम का मत्स्य मन में किए हुए अतिक्रूर कर्म के प्रभाव से सातवें नरक में जाता है, उसी प्रकार कामभोगादि विषयों में अत्यन्त आसक्त और निर्ममता के साथ अतिक्रूर कर्मों का करने वाला अज्ञानी जीव अकाम-मृत्यु को प्राप्त होता है ।
यद्यपि गाथा में मृत्यु शब्द का उल्लेख नहीं किया गया तो भी उसका अध्याहार कर लेना आवश्यक है, क्योंकि इस गाथा में दिए गए उपमावाची 'यथा' शब्द की तभी सार्थकता हो सकती है जब कि उससे सम्बन्ध रखने वाले ' तथा ' शब्द का अध्याहार किया जाए और ' तथा ' शब्द अपनी उपयोगिता के लिए अर्थ की संगति में मृत्यु शब्द के अध्याहार की अपेक्षा रखता है। तब इस श्रृङ्खला
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 199 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं