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________________ प्राकृत भाषा में द्विवचन का अभाव होने से 'स्तः' इस द्विवचन के स्थान में 'संति' यह बहुवचन का प्रयोग करना ही युक्तियुक्त है। अब बाल-मरण और पंडित-मरण की विवेचना करते हुए सूत्रकार लिखते हैं कि बालाणं अकामं तु, मरणं असई भवे । पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सइं भवे ॥ ३ ॥ बालानामकामं तु, मरणमसकृद् भवेत् । पण्डितानां सकामं तु, उत्कर्षेण सकृद् भवेत् ॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः–बालाणं-अज्ञानियों का, अकामं—अकाम, तु—निश्चय से, मरणं मरण, असई-बार-बार, भवे होता है, पंडियाणं—पंडितों का, सकामं—सकाम, मरणं मरण, तु विशेष रूप से, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, सइं—एक बार ही, भवे होता है। मूलार्थ—अज्ञानियों का अकाम-मरण तो अनेक बार होता है, किन्तु पंडितों का सकाम-मरण तो उत्कर्ष से एक ही बार हुआ करता है। टीकाजो सत्-असत् के विचार से शून्य हैं उन अज्ञानियों की अकाम मृत्यु तो अनेक बार होती है, क्योंकि विषयों के वशीभूत होकर वे बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त करते रहते हैं। सकषायी एवं विषयानुरागी होने के कारण इच्छा न होते हुए भी उन्हें बार-बार संसार-चक्र में घूमना पड़ता है, पान्तु जो सत्-असत् का विचार करने वाले पण्डित पुरुष हैं, उनको सकाममृत्यु उत्कृष्ट रूप से एक ही बार होती है, अर्थात् वे अपने संयमाराधन के प्रभाव से ऐसी मृत्यु को प्राप्त करते हैं जो दोबारा नहीं होती, क्योंकि मुक्त हो जाने के कारण उनके लिए भविष्य में मृत्यु का अभाव हो जाता है। यदि उनका पुनः कहीं पर जन्म हो तब तो उनके लिए मृत्यु की भी कल्पना की जाए परन्तु कर्ममल का विनाश करके मोक्ष-गति को प्राप्त कर लेने से उनमें तो जन्म और मृत्यु दोनों की कल्पना असम्भव है, इसलिए पंडितों अर्थात् ज्ञानियों की मृत्यु उत्कृष्टतया केवल एक ही बार होती है। यहां पर इतना और भी समझ लेना चाहिए कि यह एक बार की मृत्यु की कल्पना केवल ज्ञानी—केवल-ज्ञान प्राप्त किए हुए मुनि की अपेक्षा से है और शेष मुनियों की अपेक्षा से तो कम-से-कम उनको सात-आठ बार आवागमन करना पड़ता है। विचारशील पंडित पुरुषों की सकाम मृत्यु के लिए केवल एक बार होने का जो उल्लेख किया है उसका कारण उनकी दृढ़तर चारित्र निष्ठा है, क्योंकि दर्शन-ज्ञान-पूर्वक चारित्र-धर्म का सम्यक्तया अनुष्ठान करने वाले हापुरुषों को मृत्यु का अणुमात्र भी भय नहीं रहता। उनकी सारी क्रियाएं कर्मों की निर्जरा करने वाली होती हैं, वे ध्यानारूढ़ होकर केवल आत्म-समाधि में ही लीन रहते हैं, इसलिए अन्त समय में वे अनशन के द्वारा सकाममृत्यु को प्राप्त होते हुए कर्मों के बन्धन से सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं, उनकी यह मृत्यु अन्तिम मृत्यु होती है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 198 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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