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कर्म वाला है और जो कि एक विजय में एक ही होता है, वह इस पूछे हुए प्रश्न का इस प्रकार उत्तर देता है।
इसका तात्पर्य यह है कि रागद्वेष को जीतकर इस दुस्तर संसार-समुद्र को पार करने वाले गौतम आदि मुनियों में से कुछ महा बुद्धिमान् केवली या तीर्थंकर ही मृत्यु-सम्बन्धी इस प्रश्न का इस प्रकार उत्तर देते हैं।
.. यद्यपि सूत्र में एक वचन में ही 'एक' शब्द का प्रयोग किया गया है, तथापि वह सामान्य अर्थ का बोधक होने से सामान्य केवली और तीर्थंकर दोनों का ही ग्रहण करने वाला है।
इसी प्रकार अर्थ-भेद से सामान्य केवली और तीर्थंकर भगवान के साथ 'महाप्रज्ञ' शब्द का भी सम्बन्ध बड़ी सुगमता से किया जा सकता है। .
____ 'अण्णवंसि महोहंसि' इन शब्दों में पंचमी के स्थान पर सप्तमी का प्रयोग 'सुप्' व्यत्यय से जानना चाहिए। सर्वार्थसिद्धि नाम की टीका के कर्ता ने तो इन शब्दों को पञ्चम्यन्त दिखाते हुए अर्थ करने में इनको सप्तम्यन्त ही माना है तथा दीपिकाकार ने 'एगे' शब्द को प्रथमा का बहुवचन ही स्वीकार किया है। अब उसी विषय का पुनः प्रतिपादन किया जाता है
सन्ति मे य दुवे ठाणा, अक्खाया मारणन्तिया । अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा || २ ||
स्त इमे च द्वे स्थाने, आख्याते मारणान्तिके |
अकाम-मरणं चैव, सकाम-मरणं तथा || २ || पदार्थान्वयः—इमे—ये, संति हैं, दुवे—दो, ठाणा-स्थान, अक्खाया—कहे गए हैं, मारणंतिया-मरण के समीप, अकाममरणं—अकाम-मरण, च-और, तहा–तथा, सकाममरणंसकाम-मरण ।
मूलार्थ मरणान्त के ये दो स्थान कहे गए हैं—एक अकाम-मरण और दूसरा सकाम-मरण ।
टीका तीर्थंकर भगवान् ने मरण समय के दो स्थान वर्णन किए हैं—एक अकाम-मृत्यु और दूसरा सकाम-मृत्यु । इन्हीं का दूसरा नाम क्रम से बाल-मरण और पंडित-मरण है। तात्पर्य यह है कि मृत्यु के समय सभी जीव इन दो स्थानों के आश्रित होकर मृत्यु को प्राप्त करते हैं।
- (१) जो जीव अज्ञान की दशा में अज्ञान के वशीभूत होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं उनकी मृत्यु को बाल-मृत्यु, बालमरण या अकाम-मृत्यु कहते हैं (२) और जो जीव ज्ञान-पूर्वक मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उनकी यह ज्ञान-गर्भित मृत्यु पंडित-मृत्यु, पंडित-मरण या सकाममृत्यु कही जाती है। सूत्रकार ने
अकाम और सकाम मरण से बालमृत्यु और पण्डित मृत्यु का ही ग्रहण किया है। । , श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 197 / अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं ।
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