________________
अह अकाममरणिज्जं पंचमं अन्झयणं
अथाकाममरणीयं पंचममध्ययनं
चौथे अध्ययन में मरण - समय - पर्यन्त भी इस जीव को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए, इस विषय का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस विषय की जानकारी के लिए पाठक को सर्व प्रथम मरण-भेदों का ज्ञान होना जरूरी है, क्योंकि मरण-भेदों के ज्ञान के बिना बाल-मरण का त्याग करके पंडित मरण में पुरुषार्थ होना कठिन है, इसलिए अब पांचवें अध्ययन में अकाम और सकाम मृत्यु का वर्णन किया जाता है। इसी उद्देश्य से इस अध्ययन का नाम ' अकाम-मरणीय अध्ययन' रखा गया है। इसकी आदिम गाथा इस प्रकार है—
अण्णवंसि महोहंसि, एगे तिणे दुरुत्तरे ।
तत्थ एगे महापन्ने, इमं पण्हमुदाहरे ॥ १ ॥ अर्णवान्महौघाद्, एके तीर्णा दुरुत्तरात् ।
तत्रैको महाप्रज्ञः, इमं प्रश्नमुदाहृतवान् || १ ||
पदार्थान्वयः—– अण्णवंसि — संसार - समुद्र से, महोहंसि - महाप्रवाह वाले से, दुरुत्तरे — दुष्कर रूप में तैरे जा सकने वाले से, तत्थ एगे — एक, तिण्णे – तर गए, एगे - एक, महापन्ने — महाबुद्धिमान्, इमं - — यह प्रत्यक्ष वक्ष्यमाण, पहं— प्रश्न को, उदाहरे — कहते हैं—–— उत्तर देते हैं ।
.
मूलार्थ - राग-द्वेष से रहित हुए कई — कुछ महापुरुष ( गौतमादि ) इस महाप्रवाह वाले दुस्तर संसार-समुद्र से तर गए, उनमें महाप्रज्ञ अर्थात् अतिशय बुद्धि वाले इस वक्ष्यमाण प्रश्न का इस प्रकार उत्तर देते हैं।
टीका- यह संसार-समुद्र बड़ा ही दुस्तर है, इसके जन्म-मरण रूप महाप्रवाह में पड़ा हुआ प्राणी भाग्य से ही बाहर निकल पाता है। राग-द्वेष रूप अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले विरले महापुरुष ही इससे पार हो सकते हैं । साधारण जनों में इसके प्रवाह से बाहर निकलने का सामर्थ्य ही नहीं होता। इनसे पार होने वाले महापुरुषों में भी जो महापुरुष अद्वितीय बुद्धिमान एवं तीर्थंकर नाम
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 196
। अकाममरणिज्जं पंचमं अज्झयणं