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________________ मूलार्थ—जो तुच्छ अर्थात् निःस्सार संस्कृत भाषा के केवल प्रवादी मात्र हैं, वे अधर्म के हेतु राग और द्वेष के वश में पड़े हुए हैं। इस प्रकार जानकर उससे घृणा करता हुआ साधु जब तक शरीर का भेद नहीं हुआ, तब तक ज्ञान आदि गुणों की ही अभिलाषा करता रहे। टीका इस गाथा में अधिकतर बाह्य आडम्बरों के परित्याग की शिक्षा दी गई है। जो प्रवादी–परमतावलम्बी हैं, वे वाग्जाल में बड़े निपुण हैं, अथवा संस्कृत भाषा के बोलने में बड़े पटु हैं एवं उन्होंने अपने शास्त्रों का भी यथारुचि संस्कार किया हुआ है, परन्तु यदि उन्होंने अपने आत्मा को संस्कृत-शुद्ध नहीं किया तो उनका यह सब कुछ कथन व्यर्थ है, केवल वागाडम्बर मात्र होने से निस्सार एवं तुच्छ है। इसलिए ये प्रवादी निस्सार वाणी के बोलने वाले हैं। क्षणिक-वाद के मानने वाले हैं और निर्दयी हैं तथा राग-द्वेष के वशीभूत होने से ये आत्म-दर्शन से कोसों दूर हैं। अतः इनके विचारों को अनेकान्त शैली से विपरीत, तत्त्व-विद्या से रहित और अधर्म समझकर इनकी संगति से घृणा करता हुआ संयमशील साधु जब तक शरीर की स्थिति है—जब तक इसका भेद नहीं होता तब तक ज्ञानादि गुणों को अधिकाधिक रूप में सम्पादन करने की उत्कृष्ट भावना रखे। इस सारे प्रकरण का अभिप्राय यह है कि जो प्रवादी संस्कृत आदि भाषाओं के बोलने और वाद-विवाद में बड़ी निपुणता प्राप्त किए हुए हैं, किन्तु आत्म-शुद्धि अथवा तत्त्व-विचार में निरे कोरे हैं एवं हिंसा-मार्ग के अनुगामी और क्षणिकवाद के उपदेष्टा हैं तथा काम-शास्त्र के आलम्बन से केवल ऐहिक विषय-वासनाओं में पड़े हुए तथा अधिकांश में नास्तिकता की ओर बढ़े हुए हैं उनकी राग-द्वेष मूलक प्रवृत्ति को अधर्म-वृद्धि का हेतु समझकर, उनकी संगति से घृणा करता हुआ जब तक शरीर का · अन्त नहीं होता तब तक अप्रमत्त भाव से अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप आत्म-गुणों को अधिकाधिक विकसित करने में ही प्रवृत्त रहे। ___यहां पर अन्यमतावलम्बियों की संगति से जो घृणा करने का साधु को उपदेश दिया गया है, वह किसी द्वेष भाव से नहीं, किन्तु मध्यस्थ भाव से ही है तथा साधु की यह घृणा निन्दारूप से नहीं, किन्तु आत्म-गुणों के विकासरूप में है, यह अवश्य स्मरण रखना चाहिए । __गाथा में आए हुए ‘कांक्षेत्' क्रिया पद का केवल 'इच्छा' करना ही अर्थ नहीं, किन्तु इच्छानुकूल प्रवृत्ति करना ही उसका मुख्य तात्पर्य है । त्ति बेमि, 'इति ब्रवीमि' इस प्रकार मैं कहता हूं। इस पद की व्याख्या पूर्व में कर दी गई है, अब पुनः करने की आवश्यकता नहीं है। असंस्कृत अध्ययन सम्पूर्ण श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 195 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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