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टीका-शब्दादि मोह-गुण अपने अन्दर बड़ी विलक्षण शक्ति रखते हैं। बड़े-बड़े विवेकशील व्यक्ति भी इनके आगे नत-मस्तक हो जाते हैं। बड़े-बड़े प्रवीण पुरुषों को इन शब्दादि मोह-गुणों ने अज्ञानता के गड्ढों में धकेल दिया है। जहां पर ये विवेक और बुद्धि की सम्पत्ति को हरते हैं वहां पर इनमें प्रलोभन-शक्ति की भी कोई सीमा नहीं है। साधारण की तो बात ही क्या है, बड़े-बड़े विचारशील
और मननशील व्यक्तियों के चित्तों को भी अपनी मुट्ठी में ले लेना इनके लिए एक साधारण सी बात है, अतः इन शब्दादि अनुकूल स्पर्शों की प्रलोभनता में विचारशील साधु को अपना मन कभी न लगाना चाहिए तथा क्रोध, मान, माया और लोभ का भी परित्याग कर देना चाहिए, क्योंकि शब्दादि गुण-स्पर्शों के ये ही कारण हैं। अगर इन चारों पर विजय प्राप्त कर ली जाए तो शब्दादि मोह-गुणों का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये शब्दादि गण तो उन आत्माओं के लिए कष्टप्रद या आकर्षक होते हैं जिनके उक्त चारों कषाय उदय में आए हुए हों, अतः इन चारों कषायों पर विजय प्राप्त कर लेने से मोह के गुणों पर विजय-लाभ सहज में ही हो सकता है।
इन पर विजय प्राप्त करने का सहज उपाय सूत्रकार ने यही बताया है कि इनके प्रति किसी प्रकार का राग-द्वेष-मूलक मानसिक क्षोभ नहीं करना चाहिए। राग और द्वेष ये दो ही मुख्य कषाय हैं। क्रोधादि चारों कषाय इन्हीं दो के अन्तर्गत हैं। क्रोध और मान द्वेष के अन्तर्गत हैं एवं माया और लोभ का राग में अन्तर्भाव है, अतः इनको जीत लेने से मोह के सभी गुण और क्रोधादि सभी कषाय स्वतः ही पराजित हो जाते हैं। 'पहेज्ज' क्रिया का वैकल्पिक रूप ‘पयहिज्ज' भी है। किन्तु यहां छन्द की दृष्टि से 'पहेज्ज' पद ही उपयुक्त एवं आर्ष है। अब अन्तिम गाथा में कुछ अधिक जानने योग्य विषय का वर्णन किया जाता है—
जे संखया तुच्छ-परप्पवाई, ते पिज्ज-दोसाणुगया परज्झा । एए अहम्मे त्ति दुगुंछमाणो, कंखे गुणे जाव सरीरभेउ ॥ १३ ॥
त्ति बेमि। इति असंखयं चउत्थं अज्झयणं समत्तं ॥ ४ ॥ ये संस्कृतास्तुच्छपरप्रवादिनः, ते प्रेमद्वेषानुगताः परवशाः । एतेऽधर्मा इति जुगुप्समानः, कांक्षेत् गुणान् यावच्छरीरभेदः ॥ १३ ॥
इति ब्रवीमि |
असंस्कृतं चतुर्थमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः-जे–जो, संखया संस्कृत, तुच्छ निःसार, परप्पवाई-पर-प्रवादी, ते—वे, पिज्ज-दोसाणुगया—राग और द्वेष के अनुगत, परज्झा—परवश, एए—ये, अहम्मे–अधर्म के हेतु, त्ति—इस प्रकार जानकर, दुगुंछमाणो जुगुप्सा करता हुआ, कंखे-चाहे, गुणे-गुणों को, जाव—जब तक, सरीरभेउ—शरीर का भेद है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 194 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं .