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________________ जाते हैं। सो इनं विकारी गुणों पर विजय प्राप्त करने वाला साधु संयम-मार्ग में विचरता हुआ इनके अनुकूल अथवा प्रतिकूल स्पर्श से तथा इनके द्वारा किसी प्रकार की असाता के उत्पन्न होने से उद्वेग को प्राप्त होकर इन पर किसी प्रकार की द्वेष-भावना उत्पन्न न करे, किन्तु अपनी स्वाभाविक समता और सहनशीलता से शान्तिपूर्वक इनका स्वागत करे। साधु की संयम-वृत्ति का इसी में महत्व है कि वह अनुकूल अथवा प्रतिकूल किसी भी उपसर्ग के उपस्थित होने पर अपनी सहज-शांति को कदापि भंग न होने दे। इस कथन का तात्पर्य यह है कि इन अनुकूल अथवा प्रतिकूल उपसर्गों के आने पर मननशील साधु यह विचार करे कि मैंने इन उपसर्गों को सहन करने के लिए ही संयम ग्रहण किया है, अतः मोह-गुणों का शान्तिपूर्वक स्वागत करना मेरा मुख्य कर्त्तव्य है। यदि मैं इनसे पराजित हो गया तो मुझे अवश्य ही संसार-चक्र में अनन्तकाल तक भ्रमण करना पड़ेगा, इन गुणों का स्पर्श निःसन्देह बुद्धि को व्याकुल और किं-कर्तव्य-विमूढ़ करने वाला है, इसलिए वीतरागदेव के संयम-प्रधान साधु-धर्म का पर्यालोचन करते हुए इन उपसर्गों के सामने मुझे कभी कायर नहीं बनना चाहिए, किन्तु वीर पुरुष की भांति इनके समक्ष अपनी शान्तिमयी धीर-वृत्ति का परिचय देकर इन पर विजय प्राप्त करना ही मेरी साधु-चर्या का भूषण है। तात्पर्य यह है कि इस प्रकार की अर्थ-युक्त विचार-धारा से अपने मन को स्वस्थ और सबल बनाकर इन उपसर्गों के प्रति शरीर और वाणी से तो क्या मन से भी किसी का अनिष्ट चिन्तन न करे। यह तो अनुभव-सिद्ध है कि जब किसी व्यक्ति ने आत्मा के स्वरूप को और उसके साथ लगे हुए कर्म-फल के सम्बन्ध को भली-भांति जान लिया हो तो फिर उसका बाह्य सांसारिक वस्तुओं पर किसी प्रकार का भी द्वेष-लेश शेष नहीं रह जाता। अब मोह-गुणों का विस्तृत वर्णन किया जाता है मंदा य फासा बहु-लोहणिज्जा, तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा । रक्खिज्ज कोहं विणएज्ज माणं, मायं न सेवेज्ज पहेज्ज लोहं॥१२॥ मन्दाश्च स्पर्शा बहुलोभनीयाः, तथा-प्रकारेषु मनो न कुर्यात् । रक्षेक्रोधं विनयेत् मानं, मायां न सेवेत प्रजह्याल्लोभम् || १२ ॥ पदार्थान्वयः-मंदा—मंद, फासा—स्पर्श, बहुलोहणिज्जा—बहुत लुभाने वाले, तहप्पगारेसुतथा प्रकारों में वैसे पदार्थों में, मणं—मन, न कुज्जा—न करे, रक्खिज्ज—दूर करे, कोहं—क्रोध को, विणएज्ज—टाल देवे, माणं—मान को, मायं-कपट को, न सेवेज्ज–सेवन न करे, पहेज्ज– छोड़ दे, लोहं—लोभ को, य—समुच्चयार्थ में है। - मूलार्थ बुद्धि को मन्द करने वाले और मन को लुभाने वाले स्पर्शों में साधु अपने मन को न लगाए, वह क्रोध न करे, मान में न आए, माया-कपट का सेवन कभी न करे और लोभ को भी मन से त्याग दे। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 193 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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