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________________ करना द्रव्य - विवेक है और क्रोध, मान, माया आदि कषायों के त्याग को भाव-विवेक कहा जाता है । अतः दोनों प्रकार के विवेक के आधार पर 'धर्म का आचरण बुढ़ापे में कर लिया जाएगा' इस प्रकार के भावों का त्याग कर देना चाहिए और धर्मानुष्ठान में लग जाना चाहिए, क्योंकि जिस प्राणी ने प्रथम अवस्था में धर्म का कुछ साधन नहीं किया, उससे पिछली अवस्था में भी धर्म-साधना की कोई आशा नहीं की जा सकती। इसलिए काम - भोगादि विषयों का परित्याग करके विवेक को प्राप्त करने में यत्नशील बनना चाहिए एवं लोकस्थ प्राणी - समूह को प्राप्त करके अथवा उसका विचार करके समताबुद्धि से आत्म-रक्षा में सावधान रहने वाला महर्षि - साधु सदा अप्रमत्त रहकर अपने संयम - मार्ग में विचरण करे । यद्यपि गाथा में ‘समया’ यह तृतीयान्त पद दिया गया है तथापि इसका "शत्रु-मित्र में समान भाव रखता हुआ संयम-मार्ग में विचरण करे" यह अर्थ करना उचित है। जब तक शत्रु और मित्र के लिए समान भाव नहीं होगा तब तक संयम में विचरण भी नहीं हो सकता। इसलिए प्राप्त हुए इस दुर्लभ समय को प्रमाद के वशीभूत होकर खो देने की भूल विवेकी जनों को कभी न करनी चाहिए, अपितु जहां तक हो सके शीघ्र से शीघ्र धर्मानुष्ठान में प्रवृत्त हो जाना चाहिए, जिससे कि अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति में भी शीघ्र ही सफलता मिल सके । परन्तु प्रमाद का मूल कारण राग और द्वेष हैं, इसलिए अब उनके त्याग के विषय में लिखा जाता है— मुहुं मुहुं मोहगुणे जयन्तं, अणेगरूवा समणं चरन्तं । फासा फुसंति असमंजसं च, न तेसिं भिक्खू मणसा पउंस्से ॥ ११ ॥ मुहुर्मुहुर्मोहगुणान् जयन्तं, अनेकरूपाः श्रमणं चरन्तम् । स्पर्शाः स्पृशन्त्यसमंजसं च न तेषु भिक्षुर्मनसा प्रदुष्येत् ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः –—–— मुहुं- मुहं—–— बार-बार, मोहगुणे — मोह गुण को, जयन्तं —-जीतता हुआ, समणं – साधु, चरंतं—संयम मार्ग में चलता हुआ तथा अणेगरूवा - अनेक प्रकार, फासा - स्पर्श, फुसंति — स्पर्शित होते हैं, असमंजसं — असाता के उत्पन्न करने वाले, च- पादपूर्ति में है, तेसिं— उनमें, मणसा — मन से, भिक्खू – साधु, न – नहीं, पउस्से - द्वेष करे । मूलार्थ - बार-बार मोह- गुणों पर विजय प्राप्त करने वाले और संयम मार्ग पर चलने वाले साधु को कष्ट देने वाले अनेक प्रकार के अनुकूल अथवा प्रतिकूल स्पर्श स्पर्शित होते रहते हैं, अर्थात् असाता उत्पन्न करने वाले अनेक प्रकार के उपसर्गों का साधु को सामना करना पड़ता है, परन्तु संयमशील भिक्षु उनके साथ मन से भी द्वेष न करे, शरीर और वाणी की तो बात ही क्या है ? टीका—संयम-मार्ग पर चलने वाले साधु को मोह उत्पन्न करने वाले अनेक प्रकार के शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि गुणों का स्पर्श होता रहता है। ये सब इन्द्रिय-विषय मोह - गुण क श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 192 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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