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श्री हेमचन्द्र सूरि एक विशिष्ट विद्वान् हुए हैं। उनका समय बारहवीं शताब्दी माना जाता है और नियुक्तिकार का समय उनसे बहुत पहले का माना गया है, अर्थात् आचार्य-प्रवर श्री हेमचन्द्र सूरि के सामने नियुक्ति और कल्पसूत्र ये दोनों ही विद्यमान थे और दोनों के लेखों से वे परिचित थे। उन्होंने भी उत्तराध्ययन की रचना को कल्पसूत्र के अनुसार ही माना है, अर्थात् इसको भगवान् का अन्तिम उपदेश स्वीकार किया है। इससे भी नियुक्तिकार का लेख विचारणीय ठहरता है। इसमें तो सन्देह नहीं कि उक्त सूत्र के कतिपय अध्ययनों का विषय भगवान् महावीर स्वामी के पूर्व का तो अवश्य है (यथा—चित्तसंभूत नामक अध्ययन) परन्तु उस विषय का वर्णन भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा ही हुआ है तथा प्रत्येक अध्ययन के अन्त में आए हुए “त्ति बेमि—इति ब्रवीमि" शब्द की व्याख्या करते हुए जो—“इति सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति कथयति स्म, हे जम्बू ! अहं भगवद्वचसा त्वां ब्रवीमि'' यह कहा है, इससे भी उत्तराध्ययन का श्रमण श्री भगवान् महावीर स्वामी द्वारा उपदिष्ट होना ही प्रमाणित होता है।
यहां पर कोई-कोई सज्जन यह शंका करते हैं कि समवायांग सूत्र के ५५वें स्थान में लिखा है कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी अपने अन्तिम समय में ५५ कल्याण-फलविपाक के और ५५ पाप-फलविपाक के अध्ययनों का कथन करके सिद्ध-गति को प्राप्त हुए। जिस प्रकार इस सूत्र में उक्त ५५ अध्ययनों के कथन की चर्चा की गई है, उसी प्रकार इस सूत्र के ३६वें स्थान में उत्तराध्ययन सूत्र के ३६ अध्ययनों के कथन का उल्लेख भी होना चाहिए था, परंन्तु समवायांग सूत्र में उन अध्ययनों के कथन का उल्लेख नहीं किया गया। इससे प्रतीत होता है कि उत्तराध्ययन सू भगवान महावीर स्वामी के अन्तिम उपदेश का विषय नहीं है, अर्थात् उन्होंने अन्तिम समय में इसका उपदेश किया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता।
इस शंका का समाधान यह है कि वर्तमान सूत्रों के रचयिता शब्द-संकलना रूप से श्री सुधर्मा स्वामी ही माने जाते हैं, जब कि उन्होंने उत्तराध्ययन सूत्र के अन्त में यह स्पष्ट कह दिया है कि उत्तराध्ययनों का अन्त समय में प्रकाश करके भगवान मोक्ष में पधारे तो फिर समवायांग सूत्र में उल्लेख न रहने पर भी कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। कारण कि उत्तराध्ययन में उसका उल्लेख हो चुका है और उक्त दोनों सूत्रों के आशय को लेकर श्री भद्रबाहु स्वामी ने कल्पसूत्र की ग्यारहवीं वाचना में इस बात को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है, जिससे कि किसी को भ्रम ही न रहे। तब इस सारे संदर्भ से यह बात भली-भांति प्रमाणित हो जाती है कि उत्तराध्ययन सूत्र के निर्माता (अर्थ रूप से) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अतिरिक्त और कोई नहीं हैं।
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१. समणे भगवं महावीरे अंतिमराइयंसि पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाइं पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाइं वागरित्ता सिद्धे बुद्धे जाव-प्पहीणे।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 20 । प्रस्तावना