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रहे। दीक्षित होकर अर्थात् त्यागवृत्ति को धारण करके कुछ अधिक १२ वर्षों तक वे छद्मस्थ दशा में रहे। फिर केवलज्ञान हो जाने पर कुछ न्यून तीस वर्ष तक वे केवली अवस्था में विचरे। इस प्रकार ४२ वर्ष तक श्रमण-अवस्था में रहकर कुल ७२ वर्ष की आयु को भोगकर चार प्रकार के अघातीवेदनीय, आयु, नाम और गोत्र - कर्मों का क्षय करके इस अवसर्पिणी काल के दुषम- सुषम नामक चतुर्थ आरक के बीतने में केवल तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रह जाने पर पावापुरी के हस्तिपाल राजा की राजसभा में षष्ठ-भक्त करके प्रातःकाल के समय पद्मासन में बैठे हुए कल्याण फल के देने वाले ५५ और पाप फल के देने वाले ५५ अध्ययनों का तथा ३६ अपृष्ट व्याकरणों— उत्तराध्ययन रूप ३६ अध्ययनों का कथन करके, प्रधान नाम के अध्ययन – मरुदेव्यध्ययन का चिन्तन करते हुए निर्वाण पद को प्राप्त हो गए । इत्यादि
इस कथन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उत्तराध्ययन के निर्माता भगवान महावीर स्वामी थे और यह उनका अन्तिम उपदेश था। इसके अतिरिक्त आचार्य - प्रवर श्री हेमचन्द्र सूरि ने भी अपने 'त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र' में इसी सिद्धान्त का अनुसरण किया है, अर्थात् वे भी उत्तराध्ययन को श्रमण भगवान महावीर स्वामी का अन्तिम उपदेश मानते हैं । यथा—
“षट्त्रिंशत्तमाप्रश्नव्याकरणान्यभिधाय च ।
प्रधानं - नामाध्ययनं जगद्गुरुरभाषयत् || ” ( पर्व १०, सर्ग १३, श्लो० २२४)
इस श्लोक में आया हुआ 'अप्रश्नव्याकरणानि' यह पाठ कल्पसूत्रगत 'अपुट्ठवागरणाई" पाठ काही छायामात्र है। इसका तात्पर्य यह है कि बिना पूछे उपदेश करना। तब जैसे सब पर हित - बुद्धि " रखने वाले महापुरुष बिना पूछे भी दूसरे जीवों के कल्याणार्थ धर्म का उपदेश देते हैं, इसी दृष्टि से परमोपकारी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने भी लोक-कल्याण की भावना से बिना किसी के प्रश्न किए ही इनका उपदेश किया जो कि भगवान का अन्तिम उपदेश कहा व माना जाता है तथा इससे उत्तराध्ययन का 'अपृष्ट व्याकरण' अथवा 'अप्रश्न व्याकरण' यह नामान्तर भी प्रमाणित हो जाता है ।
अब एक और बात विचारणीय है, वह यह कि नियुक्ति के कर्त्ता श्री भद्रबाहु स्वामी थे और कल्पसूत्र के रचयिता भी उन्हीं अर्थात् भद्रबाहु स्वामी को ही माना जाता है । यह बात यदि सत्य है अर्थात् नियुक्ति और कल्पसूत्र दोनों के कर्त्ता यदि भद्रबाहु स्वामी ही हैं तो फिर इन दोनों लेखों में विभिन्नता क्यों ? और यदि दोनों के कर्त्ता एक नाम के कोई भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, तब तो नियुक्ति की अपेक्षा आगम-सम्मत विचार को ही अधिक महत्त्व देना उचित प्रतीत होता है। जैन सम्प्रदाय में
समये —— चतुर्घटिकावशेषायां रात्रौ संपल्यकासनेन निषण्णः पद्मासननिविष्टः पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि कल्याणं पुण्यं तस्य फलविपाको येषु तानि कल्याणफलविपाकानि पंचपंचाशत् अध्ययनानि पापफलविपाकानि, षट्त्रिंशत् अपृष्टव्याकरणानि अपृष्टान्युत्तराणि व्याकृत्य कथयित्वा प्रधानं नाम एकं मरुदेव्यध्ययनं विभावयन् भगवान् कालगतः, संसाराद् व्यतिक्रान्तः, सम्यगू, ऊर्ध्वयातः इत्यादि । (सुबोधिका टीका )
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 19 प्रस्तावना