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स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा, एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीयई सिढिले आउयम्मि, कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥ ६॥
स पूर्वमेवं न लभेत पश्चात्, एषोपमा शाश्वत-वादिकानाम् ।
विषीदति शिथिले आयुषि, कालोपनीते शरीरस्य भेदे || ६ || पदार्थान्वयः—स पुव्वमेवं—पहले की तरह, पच्छा—पीछे, न लभेज्ज–प्राप्त न हो, ऐसोवमा—यह उपमा, सासय-वाइयाणं-शाश्वत-वादियों की है, विसीयई खेद पाता है, सिढिलेशिथिल, आउयम्मि—आयु के होने पर, कालोवणीए—काल के समीप आने पर, सरीरस्स-शरीर के, भेए—भेद होने पर।
मूलार्थ—जैसा लाभ पहले प्राप्त हो सकता है, वैसा पीछे नहीं, पीछे भी धर्म-लाभ प्राप्त किया जा सकता है, यह कथन तो केवल शाश्वत-वादियों का है, अतः आयु के शिथिल होने पर काल के निकट आ जाने पर और शरीर के भेद होने पर फिर वह जीव खेद को प्राप्त होता है। "
टीका–धर्म आदि शुभ कृत्यों का लाभ जैसे पहली अवस्था में हो सकता है, वैसे पीछे की वृद्धावस्था में नहीं। जो ओज और अंग-स्फूर्ति आयु के प्रथम भाग में होती है, वैसी आयु के उत्तर भाग में नहीं रहती तथा जिस जीव ने पहले प्रमाद का अधिक सेवन किया है उसके लिए पीछे से अप्रमादी होना अत्यन्त कठिन है। इससे सिद्ध हुआ कि आत्म-निग्रह आदि की जो शक्ति मनुष्य में . आयु के पहले भाग में होती है वह शक्ति पिछली आयु में उपलब्ध नहीं होती। इसके अतिरिक्त 'हम आयु के अन्तिम भाग में सब कुछ कर लेंगे' यह विचार तो उन लोगों का है जो कि अपनी आयु के परिणाम को ठीक रूप से जानते हैं और निरुपक्रमी होते हैं। वे तो कदाचित् यह कह सकते हैं कि 'हम धर्म का अनुष्ठान बाद में कर लेंगे, अभी तो हमारी आयु बहुत शेष रहती है, क्योंकि वे लोग निरुपक्रमी होने से अपने आत्मा को शाश्वत की भान्ति मानते हैं, परन्तु जिनकी आयु क्षणिक है, उपक्रम युक्त है, वे तो आयू के शिथिल हो जाने पर काल के निकट आने और शरीर के भेद हो जाने पर अधिकतया खेद को ही प्राप्त होते हैं, अर्थात् शरीर के अन्तिम समय में उनको अपने प्रमादी जीवन पर अत्यन्त शोक और परिताप करना पड़ता है। यथा-“ओह हमने अपने जीवन में कोई भी सुकृत नहीं किया ! पर-लोक यात्रा में उपस्थित होने वाली असह्य भयंकर वेदनाओं से अपने को सुरक्षित रखने के लिए हमने कोई उपयोगी साधन सामग्री का अर्जन नहीं किया इत्यादि। इसलिए विचारशील पुरुषों को पहले से ही प्रमाद का परित्याग कर देना चाहिए, ताकि पीछे से उन्हें अधिक पश्चात्ताप न करना पड़े, क्योंकि आयु के प्रथम भाग में उन्नति के सभी प्रकार के संयोगों की उपलब्धि प्रायः शक्य होती है और अन्तिम भाग में उसका प्राप्त होना बहुत कठिन हो जाता है। ___आयु के निरुपक्रम और सोपक्रम ये दो भेद माने गए हैं। इनमें से बाहर के शस्त्र आदि निमित्तों से भी जिसका उच्छेद न हो वह निरुपक्रम आयु कही जाती है एवं जो व्यक्ति बाह्य निमित्त शास्त्र
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 190 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं