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अन्धकारमयी गुफा में प्रवेश कर गए और बहुत दूर जाने पर उनके दीपकों में तेल खत्म हो गया और उनके सारे के सारे दीपक बुझ गए। दीपकों के बुझ जाने से उस अन्धकारमयी गुफा में वे इधर-उधर भटकने लगे और कहीं पर भी मार्ग के न मिलने से वे सब-के-सब वहीं समाप्त हो गए। बस, यही दशा इस अज्ञान-ग्रस्त प्रमादी जीव की होती है।
सौभाग्यवशात् कभी अच्छे गुरुजनों के सत्संग में आने से इस जीव के हृदय में सद्बोध अर्थात् सद्विचार का कुछ प्रकाश होने लगता है और उसके द्वारा वह सम्यग् मार्ग को भी जानने लग जाता है, परन्तु अज्ञानरूप वायु के प्रबल झोंकों से जब उसका यह सद्बोध अर्थात् सम्यग्दर्शनरूप दीपक बुझ जाता है तब वह फिर अन्धकारव्याप्त होने से अपने निर्दिष्ट न्याय-पथ से भ्रष्ट होकर इधर-उधर कुमार्ग में भटकता हुआ अधिक से अधिक दुख पाता है। इसलिए गुरुजनों की सत्संगति से प्राप्त हुए पथ-प्रदर्शक सद्बोधरूप दीपक की रक्षा के लिए सावधान रहने का प्रयत्न न करना ही प्रमाद है और गुरुजनों के सान्निध्य से प्राप्त हुए सद्बोधरूप दीपक को अज्ञान वायु के प्रबल झोंकों से बचाए रखना ही अप्रमाद है, अतः प्रमाद-रहित विवेकशील पुरुषों का सम्यग्दर्शन की रक्षा करना ही सबसे अधिक कर्तव्य है।
यहां पर 'दीवप्पणठे' के स्थान में 'पणट्ठदीवे' होना चाहिए था, अर्थात् व्याकरण के नियमानुसार 'दीपप्रणष्टः' की जगह पर 'नष्टप्रदीपः' प्रयोग होना चाहिए, परन्तु यहां पर जो दीपक शब्द का पूर्वनिपात हुआ है वह प्राकृत के नियमानुसार है।
'न्याय-मार्ग' मोक्षमार्ग का नाम है। उसकी प्राप्ति के साधन सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं, परन्तु जिस जीव के अनन्तमोहनीय कर्म की प्रकृतियां उदय में आ जाती हैं, वह उक्त मार्ग को देखता हुआ भी बिना देखने के समान ही हो जाता है। ____ जब कि कुटुम्ब, धन और बन्धुजनों में से कर्मभोग के समय पर जीव का कोई भी सहायक नहीं बन सकता तो फिर इस जीव का क्या कर्त्तव्य होना चाहिए', अब इस विषय का निम्नलिखित गाथा के द्वारा वर्णन करते हैं
सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिय आसुपन्ने । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खीव चरेऽप्पमत्ते ॥ ६ ॥
सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी, न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः ।
घोराः मुहूर्ता अबलं शरीरं, भारण्डपक्षीव चरेदप्रमत्तः ॥ ६ ॥ पदार्थान्वयः-सुत्तेसु–सोये हुए जनों में, यावी-और भी, पडिबुद्धजीवी-जागते हुए जीवन व्यतीत करने वाला, न वीससे—विश्वास न करे कि, पण्डिए—विद्वान्, आसुपन्ने—आशुप्रज्ञ—तीक्ष्ण बुद्धि वाला, घोरा-भयंकर, मुहुत्ता—मुहूर्त हैं, अबलं–निर्बलता, सरीरं—शरीर है, भारंडपक्खीवभारण्ड पक्षी की तरह, अप्पमत्ते—अप्रमत्त होकर, चरे–विचरण करे। |
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 185 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं