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मूलार्थ सोये हुए लोगों में जागता हुआ और जागते हुए जीवन व्यतीत करने वाला कुशाग्रबुद्धि पण्डित पुरुष प्रमाद और प्रमादी जनों में कभी विश्वास न करे और समय की भयंकरता तथा शरीर की निर्बलता का विचार करता हुआ भारंड पक्षी की तरह सदा अप्रमत्त रहकर, अर्थात् प्रमाद-रहित होकर विचरण करे, अथवा हे शिष्य! तू इस प्रकार विचरण कर ।
टीका—इस गाथा में साधु को प्रमादी पुरुषों से सावधान रहने और स्वयं अप्रमत्त रहकर जीवन व्यतीत करने का आदेश दिया गया है। निद्रा में प्रमाद और जागरण में अप्रमत्तता है, अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो निद्रा ही मृत्यु और जागरण ही जीवन है। इसलिए द्रव्य-निद्रा और भाव-निद्रा में सोये हुए संसारी जीवों में द्रव्य और भाव से जागने वाला संयमी पुरुष ही वास्तव में अप्रमादी या अप्रमत्त माना जा सकता है, अतएव शास्त्रकारों का उपदेश है कि सोये हुए प्रमादी जीवों में जागने वाला और जागते हुए जीवन व्यतीत करने वाला प्रतिभा-सम्पन्न संयमी पुरुष भूलकर भी प्रमाद का सेवन और प्रमादी पुरुष का संसर्ग न करे, अर्थात् इनमें किसी प्रकार का भी विश्वास न करे, क्योंकि इनसे हानि के अतिरिक्त लाभ कुछ नहीं होता।
चिन्तनशील साधक को चाहिए कि वह आयु के लिए काल की भयंकरता और उसके समक्ष अपने शरीर की अति दुर्बलता का विचार करता हुआ अर्थात् काल की विकरालता और शरीर की क्षण-भंगुरता का चिन्तन करता हुआ भारण्ड पक्षी की तरह सदैव अप्रमत रहने का ही प्रयत्न करता रहे । तात्पर्य यह है कि जैसे भारण्ड पक्षी जरा सा भी प्रमाद करने पर विनाश को प्राप्त हो जाता है, अतः वह इसी भय से कभी प्रमाद नहीं करता, वह अप्रमत्त ही रहता है। इसी प्रकार संयमशील पुरुष को भी प्रमाद की सर्व प्रकार से उपेक्षा करते हुए अप्रमत्त रहकर ही अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए, इसी में उसका कल्याण है।
उक्त गाथा में दिए गए निद्रावाची ‘सुप्त' शब्द का द्रव्य और भाव दोनों रूपों में ग्रहण करना चाहिए। इनमें द्रव्य-निद्रा तो शयन-क्रिया के रूप में प्रसिद्ध ही है और भाव निद्रा–अज्ञान, मिथ्यात्व एवं अविवेक के रूप में मानी जाती है। संसारी लोग प्रायः भाव-निद्रा में ही अधिकतया सोए पड़े हैं, इसी कारण से संसार में अधिक अनर्थ, अधिक अन्याय और अधिक झगड़े देखे जाते हैं।
श्री भगवती-सूत्र के बारहवें शतक में जयन्ती के अधिकार में लिखा है कि जयन्ती को उत्तर देते हुए भगवान् श्री महावीर स्वामी कहते हैं कि हे जयन्ति! अधर्मी आत्मा तो सोये हुए ही अच्छे हैं और धर्मात्मा पुरुष जागते हुए श्रेष्ठ हैं, क्योंकि अनेकविध निर्बल और निरपराध प्राणियों को धर्मात्मा पुरुषों के जागने से और अधर्मी अर्थात् पापिष्ठ पुरुषों के सोते रहने से ही प्राणियों को अधिक सुख
और शान्ति की प्राप्ति होती है, अतः प्रमाद-आलस्य और अज्ञान के वशीभूत होकर सोने वाले जीवों में सदा जागते रहने वाले संयमशील तपस्वी पुरुष को कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।
___ इस कथन से संयमी पुरुष की द्रव्य-निद्रा भी अति स्वल्प ही प्रमाणित होती है, क्योंकि स्वल्पनिद्रा लेने में ही ज्ञानादि के विकास की अधिक सम्भावना है। अपि च स्वल्पनिद्रा का होना
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 186 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं