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________________ हुए अशुभ कर्मों से उत्पन्न होने वाले दुख का विभाग नहीं कर सकता, इसलिए तू धर्म के मार्ग के अनुसरण में कभी प्रमाद मत कर। उक्त सूत्र में 'कम्मस्स' यह पंचमी के अर्थ में षष्ठी का प्रयोग किया गया है और 'अट्ठा' यहां पर 'क्यप्' प्रत्यय का लोप होने से कर्म में पंचमी है यथा अर्थानाश्रित्य । 'च' और 'तु' शब्द समुच्चयार्थक हैं। यदि कोई यह कहे कि धन तो सहायक होगा ही, क्योंकि संसार में धन से सभी कार्य सिद्ध किए जा सकते हैं, तो अब सूत्रकार निम्नलिखित गाथा में इन विचारों की आलोचना करते हुए कहते वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था । दीवप्पणढे व अणंतमोहे, नेयाउयं ठुमदठुमेव ॥ ५ ॥ वित्तेन त्राणं न लभते प्रमत्तः, अस्मिंल्लोकेऽथवा परत्र | . . दीपप्रणष्ट इवानन्त मोहः, नैयायिकं दृष्ट्वा अद्रष्टवैव || ५ || पदार्थान्वयः वित्तेण—धन से, ताणं त्राण-शरण, पमत्ते—प्रमादी जन, न लभे—प्राप्त नहीं कर सकते, इमम्मि—इस, लोए–लोक में, अदुवा—अथवा, परत्था—परलोक में, दीवप्पणढे व–नष्ट-दीपक पुरुष की तरह, अणंतमोहे-अनंत मोहपूर्वक, नेयाउयं—न्यायकारी मार्ग को, दटुं—देख करके, अदठुमेव—बिना देखे हुए की तरह ही होता है। ____ मूलार्थ प्रमादी पुरुष को इस लोक तथा परलोक में धन भी पाप-कर्मजन्य फल भोग से सुरक्षित नहीं रख सकता, वह प्रमादी पुरुष दीपक के अभाव से अन्धकार होने के कारण मार्ग को न देखने वाले पुरुष की भांति मोह एवं अज्ञान के कारण न्यायोचित मार्ग को देखता हुआ भी नहीं देख पाता है। ___टीका भगवान् उपदेश देते हैं कि हे आर्य पुरुषो! प्रमादी जन अपने किए हुए कर्मों के फल को भोगने के समय धन से अपनी रक्षा नहीं कर सकते, अर्थात् अपने कर्म-जन्य दुख से धन के द्वारा उन्हें छुटकारा नहीं मिल सकता। संसार में अनेक ऐसे असाध्य रोग हैं जो कि लाखों का धन व्यय करने पर भी शान्त नहीं होते और जबकि इस लोक में ही वह धन कर्म-जन्य दुख की निवृत्ति में सफल नहीं हो पाता, तब परलोक में तो उससे किसी प्रकार की सहायता की आशा करना व्यर्थ ही है। इसलिए लोक और परलोक दोनों में ही कर्म-जन्य दुख की निवृत्ति के लिए धन से किसी प्रकार की भी सहायता नहीं मिल सकती। प्रमादी व्यक्ति अपने घोर अज्ञान के कारण न्यायोचित मार्ग को भूलकर कुमार्ग का अनुगामी होता हुआ अधिकांश दुख ही दुख उठाता है, उसकी वही दशा होती है जो दीपकों के नाश होने से अन्धकार-व्याप्त गुफा में पथभ्रष्ट हुए कुछ व्यक्तियों की हुई। शास्त्रों में एक प्रसंग आता है कि किसी समय बहुत से व्यक्ति हाथों में दीपक लेकर एक श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 184 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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