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और ही होना चाहिए? इस शंका के समाधान में यह कहा जा सकता है कि सूत्रकार ने तो काल-स्वभाव-नियति-कर्म और पुरुषार्थ इन पांच समवायों को किसी भी कार्य का कारण स्वीकार किया है, केवल कर्ममात्र को कारण नहीं माना। अतः ये पांचों ही समवाय शुभाशुभ कर्मों के करने
और उनका सुख-दुख रूप जो फल होता है उसके भोगने में उपस्थित रहते हैं। कल्पना कीजिए कि किसी ने विष का भक्षण कर लिया है तो उसको मृत्युरूप फल की प्राप्ति इन पांच समवायों से ही होती है, यथा विष भक्षण का समय—काल, विष की तीक्ष्ण मारकत्व शक्ति–स्वभाव, आयु के क्षय के समय में विष का भक्षण करना—नियति और खाने का उद्योग करना–पुरुषार्थ, इस प्रकार कार्यमात्र की सिद्धि में इन पांचों समवायों की कारणता विद्यमान रहती है।
__ यदि कोई कहे कि हम तो अपने बन्धु जनों के लिए कार्य करते हैं, वे भी तो धनादि को विभाग करके भोगते हैं। संभव है उन्हीं के निमित्त से मुक्ति हो जाए, इत्यादि प्रकार के भ्रान्त विचारों का उत्तर नीचे लिखी गाथा के द्वारा दिया जाता है—
संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधवयं उति ॥ ४ ॥
संसारमापन्नः परस्याय, साधारणं यच्चकरोति कर्म ।
कर्मणस्ते तस्य तु वेदकाले, न बान्धवा बन्धुत्वमुपयान्ति || ४ || पदार्थान्वयः—संसारं—संसार में, आवन्न—प्राप्त हुआ, परस्स—पर-दूसरे के, अट्ठा-वास्ते, . साहारणं साधारण, च–समुच्चय में, जं—जो, कम्मं—कर्म, करेइ करता है, तस्स—उस, कम्मस्स—कर्म के, वेयकाले–भोगने के समय, ते तेरे, बंधवा-बन्धुजन, बंधवयं-बन्धु-भाव को, न उति—प्राप्त नहीं होते, उ—अपि के अर्थ में हैं। .
मूलार्थ—संसार को प्राप्त हुआ प्राणी अपने लिए अथवा दूसरों के लिए या दोनों के लिए जो कर्म करता है उस कर्म का फल भोगने के समय वे बन्धुजन उसके बन्धुभाव को प्राप्त नहीं होते, अर्थात् उससे अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानते हैं। - टीका-शास्त्रकार उपदेश करते हैं कि यह प्राणी संसार-चक्र में भ्रमण करता हुआ और अनेक-विध ऊंच-नीच कूलों में जन्म लेता हुआ जब कभी मनुष्य-जन्म को प्राप्त करता है, तब जो कर्म उसने अपने लिए अथवा दूसरों के लिए या दोनों के लिए किए हैं, उनके भोगने के समय उसके बन्धुजन किसी प्रकार से भी उसके भागीदार नहीं बनते, किन्तु जीव को अपना कर्म-फल अकेले ही भोगना पड़ता है। तात्पर्य यह है कि जो जीव जिस कर्म का अनुष्ठान करने वाला है उस कर्म के फल को भोगने के लिए भी उसी को प्रस्तुत होना पड़ेगा, दूसरे किसी को चाहे वह आत्मज हो अथवा कोई अन्य सम्बन्धी हो—उसे हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं, हे जीव ! अपने किए हुए शुभाशुभ कर्मों का उत्तरदायित्व भी तेरे ही ऊपर है। तेरे बिना और कोई भी तेरे किए । .
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 183 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं