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कुत्सित–खोटी बुद्धि समझना चाहिए । तब इसका यह अर्थ निष्पन्न हुआ कि 'जो लोग खोटी बुद्धि से अन्यायोपार्जित धन का ग्रहण करते हैं, वे अन्ततोगत्वा नरकों में ही निवास करते हैं । '
अब उक्त विषय को अधिक दृढ़ और स्पष्ट करने के लिए फिर कहते हैं—
ते जहा संधिमुहे गए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी । एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ॥ ३ ॥
स्तेनो यथा संधिमुखे गृहीतः, स्वकर्मणा कृत्यते पापकारी । एवं प्रजाः प्रेत्येह च लोके, कृतानां कर्मणां न मोक्षोऽस्ति || ३ || पदार्थान्वयः – तेणे – चोर, जहा —– जैसे, संधिमुहे —– संधि के मुख में, गहीए - पकड़ा हुआ, सकम्मुणा — अपने किए हुए कर्म से, किच्च - छेदा जाता है, एवं इसी प्रकार, पावकारी – पापकर्म करने वाला, पया—जीव की, पेच्च – परलोक, च — और, इहं—–इस, लोए – लोक में, कडा -किए हुए, कम्माण – कर्मों का फल भोगे बिना, मोक्ख — मोक्ष, न अत्थि नहीं है ।
मूलार्थ —— जैसे सेंध के मुख में सेंध लगाते हुए पकड़ा गया चोर अपने किए हुए पाप कर्मों से मारा जाता है, उसी प्रकार यह जीव भी इस लोक में तथा परलोक में अपने किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं पाते ।
टीका–जैसे चोरी करते समय पकड़ा जाने वाला चोर अपने किए हुए पाप कर्म से दुख पाता है, इसी प्रकार पापकर्मों का आचरण करने वाले सभी जीव इस लोक तथा परलोक में दुखों को प्राप्त करते हैं, तात्पर्य यह है कि कर्मों का भोगना अवश्यंभावी है, बिना भोगे कर्मों से कभी छुटकारा नहीं होता, इसलिए विचारशील व्यक्तियों को पापकर्मों के बदले शुभ कर्मों का ही आचरण करना चाहिए ।
कुछ सज्जन परलोक में विश्वास नहीं रखते, उनके विचारानुसार कर्म का भोग - फल भी इसी लोक में मिलता है, परन्तु उनका यह कथन शास्त्र और अनुभव के विरुद्ध होने से मान्य नहीं हो सकता, इसलिए सूत्रकार ने इस लोक के साथ परलोक का भी उल्लेख किया है। तात्पर्य यह है कि अधिकतर कितने ही कर्म ऐसे भी हैं जिनका फल इस जन्म में न भोगा जाकर दूसरे जन्म में भोगना पड़ता है। जैसे वृक्ष के मूल में डाले हुए जल का ऊपर के पत्तों तक में परिणमन हो जाता है, ठीक उसी प्रकार इस लोक में एवं इस जन्म में किए गये कर्म दोनों लोकों में फलप्रद हो सकते हैं।
जिस आत्मा ने इसी जन्म में मोक्ष को प्राप्त हो जाना हो, वह तो परलोक में कर्म-फल का भोग नहीं करता, क्योंकि मोक्ष हो जाने पर उसका कोई कर्मांश शेष नहीं रह जाता, किन्तु जो बद्ध जीव हैं, उनको तो इस लोक तथा परलोक दोनों में ही कृत कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है।
यहां यह शंका उत्पन्न हो सकती है। सूत्र में पाप कर्म का फल दुख बताया गया है, परन्तु यह नहीं बताया गया है कि कर्म ही उस दुख रूप फल को देते हैं, इसलिए कर्म - फल के दिलाने वाला कोई श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 182 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं