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करते हैं, पहाय—फिर उसी धन को छोड़कर, ते—वे, पास—विषय रूप पाश में, पयट्टिए—प्रवृत्त हुए, नरे—व्यक्ति, वेराणुबद्धा निरन्तर वैर से बंधे हुए, नरयं-नरक में, उवेंति–उत्पन्न होते हैं।
मूलार्थ जो मनुष्य धन को पाप कर्मों से इकट्ठा करके और अमृत के समान जान कर उसे ग्रहण करते हैं, वे मनुष्य विषयरूप पाश में फंसकर तथा अन्य जीवों से वैर भाव को बांध कर नरक में उत्पन्न होते हैं। ___टीका—इस गाथा में पापकर्मों के द्वारा एकत्रित किए गए धन के परिणाम विशेष का वर्णन किया गया है। जो लोग पापकर्मों से धन का उपार्जन करके उसे अमृत के तुल्य मानकर स्वीकार करते हैं वे ही लोग उस धन को विषयों के निमित्त त्यागकर विषय-जन्य सुखों में फंसकर और अन्य जीवों से तन्निमित्तक वैर भाव को बांधकर अन्ततोगत्वा नरक में उत्पन्न होते हैं। यही पाप-कर्मों से इकट्ठे किए हुए धन का अन्तिम परिणाम है। इसलिए जो लोग धन-संचय से सुख की प्राप्ति मानते हैं, वे बड़ी भारी भूल करते हैं। अन्याय-मार्ग से उत्पन्न किए गए धन का कभी शभ परिणाम नहीं हो सकता। यद्यपि धन से अनेक प्रकार के कार्य अर्थात् धर्म के कार्य भी हो सकते हैं, परन्तु वह धन विचारशील पुरुषों द्वारा न्याय से उपार्जन किया हुआ होता है और ऐसे धर्मानुरागी विचारशील पुरुष संसार में बहुत ही कम होते हैं। अधिक भाग तो पापात्माओं का ही है। पापिष्ठों का धन कभी शुभकार्य में नहीं लगता, किन्तु विषय-सेवनादि जघन्य कार्यों में ही उसका उपयोग होता है। पूज्य सूत्रकार ने इसी आशय को लेकर पाप कर्मों द्वारा अर्जन किए जाने वाले धन का निर्देश किया है, अतः पापकर्मों से उपार्जन किए गए धन का अन्तिम परिणाम दुखवृद्धि के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। ____ पाप-कर्म से उपार्जन किए गए धन से यदि कोई धर्म का कार्य किया जाए अर्थात् उस धन को किसी धर्म-सम्बन्धी कार्य में लगाया जाए तो उसका फल भी नरंक की प्राप्ति भले ही न हो, किन्तु ऐसा धन धर्म-वृद्धि एवं धर्म-साधना को सफल नहीं बना सकता, किन्तु यह जान लेना बहुत आवश्यक है कि जो द्रव्य न्याय से उपार्जित किया गया है वही धर्म-कार्य के योग्य हो सकता है और चोरी आदि अन्याय से एकत्रित किया हुआ द्रव्य तो अधर्म का ही पोषक होता है।
. इस प्रकार पाप से धन, धन से विषयरूप पाश, पाश से अन्य जीवों से वैरभाव और वैर से नरक की प्राप्ति, यह बात भली-भांति सिद्ध हो जाती है। इसलिए पाप-कर्मों से द्रव्य का उपार्जन करके और उसके द्वारा विषयरूप विषज्वाला को परिवर्द्धित करते हुए उसमें अपने आपको स्वाहा करने का बुद्धिमान जनों को कभी साहस नहीं करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त गाथा में आए हुए ‘अमयं' पद का 'अमृत' अर्थ करने के अतिरिक्त 'अमइ' पाठ में अमति अर्थात् कुमति अर्थ भी सूत्रकार को अभिप्रेत है। इसी आशय से वृत्तिकार लिखते हैं कि 'अमतिं नञः कुत्सार्थत्वात् कुमतिमुक्तरूपां गृहीत्वा संप्रधार्य' अर्थात् अमति शब्द में होने वाले नञ् समास में 'नञ्' कुत्सा–निन्दा का वाची है, इसीलिए 'अमई' के स्थानापन्न 'अमति' शब्द का अर्थ |
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 181 । चउत्थं असंखयं अज्झयणं