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________________ टूटी हुई प्रायः हर एक वस्तु किसी-न-किसी प्रकार से जोड़ी जा सकती है, किन्तु आयु का सन्धान किसी प्रकार के यत्न से भी साध्य नहीं, इसलिए धर्म के अनुष्ठान में कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिए । कितने ही भोले व्यक्ति धर्माचरण को वृद्धावस्था के लिए संभाल कर रखने का मनोरथ करते हैं और कहते हैं कि वृद्धावस्था के आने पर धर्म का आचरण करेंगे, अभी तो युवास्था में भोगे जाने वाले विषयों का ही आनन्द लूटना चाहिए, परन्तु उनको यह स्मरण नहीं रहता कि वृद्धावस्था में उनका कोई रक्षक या सहायक भी होगा कि नहीं, वास्तव में कोई नहीं होगा। आज युवावस्था में जिन कुटुम्बी जनों के लिए आत्म-समर्पण तक किया जाता है और जिन पुत्रादि से अधिक प्यार किया जाता है, वृद्धावस्था में वे ही हमारा तिरस्कार करने लग जाते हैं । इसीलिए वृद्धावस्था में धर्मानुष्ठान की आशा करना सर्वथा व्यर्थ है। धर्म के आचरण के लिए तो जितनी शीघ्रता हो सके उतनी ही श्रेष्ठ है। वास्तव में जब तक इस शरीर में बल है, जब तक इसमें स्फूर्ति है और जब तक चक्षु आदि इन्द्रियां अपना-अपना काम अच्छी तरह से कर रही हैं एवं जब तक यह शरीर जरा रूपी राक्षसी से अभिभूत नहीं होता, तब तक अर्थोपार्जन की भांति अप्रमत्त होकर धर्म का संचय करना चाहिए। अतः जो जीव प्रमत्त हैं, प्रमादी हैं, हिंसक हैं, सावद्य कर्मों का अनुष्ठान करने वाले हैं और अजितेन्द्रिय मात्र - इन्द्रियों के वशीभूत हैं, वे मृत्यु के समय किस की शरण में जाएंगे ? किसका आश्रय ग्रहण करेंगे? इस बात का विवेकी जनों को अवश्य ध्यान रखना चाहिए। सारांश यह है कि धर्म के आचरण में प्रवृत्त हो जाना चाहिए। इस गाथा में आया हुआ ‘हु' शब्द 'यस्मात्' अर्थ का वांचक है और 'जणे पमत्ते' ये दोनों शब्द प्रथमा विभक्ति के बहु वचन के स्थान पर दिये गए सप्तमी के एकवचन के रूप हैं। 'नु' यह वितर्क अर्थ में है। कितने ही अज्ञानी जीव धन को ही सुख का साधन मानते हुए धन के उपार्जन में ही अप्रमत्तता रखने का उपदेश करते हैं और स्वयं भी प्रमाद - रहित होकर धन के संचय में लीन रहते हैं। ऐसे लोगों के विचार से असहमत होते हुए सूत्रकार उनके उक्त विचार के भयंकर परिणाम का दिग्दर्शन कराने के लिए अब दूसरी गाथा का उल्लेख करते हैं जे पावकम्मेहिं धणं मणूसा, समाययन्ती अमई ( अमयं) गहाय । पहाय ते पासपयट्टिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उवेंति ॥ २ ॥ ये पापकर्मभिर्धनं मनुष्याः समाददते अमतिं गृहीत्वा । प्रहाय ते पाशप्रवर्तिता नराः, वैरानुबद्धा नरकमुपयान्ति ॥ २ ॥ पदार्थान्वयः – जे – जो, मणूसा - मनुष्य, पावकम्मेहिं पाप कर्मों से, धणं-ध अमई – कुमतिपूर्वक — वा अमृत के समान जानकर, गहाय — ग्रहण करके, समाययंति—– अंगीकार -धन को, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 180 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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