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________________ (अह चउत्थ असंखय अन्झयण अथ चतुर्थमसंस्कृतमध्ययनं तीसरे अध्ययन में चारों अंगों की दुर्लभता का उपपत्ति-सहित बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है, परन्तु भाग्यवशात् यदि किसी जीव को उन चारों अंगों की प्राप्ति हो जाए तो उसके लिए उचित है कि वह धर्म के आचरण में कभी प्रमाद न करे। इस चतुर्थ अध्ययन में इसी बात का अर्थात् प्रमाद के त्याग और अप्रमाद के सेवन का सुन्दर वर्णन किया गया है। सबसे प्रथम, प्रमाद का त्याग किस विचार को लेकर करना चाहिए, इस विषय का वर्णन निम्नलिखित गाथा के द्वारा किया जाता है— असंखयं जीवियं मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, किण्णु विहिंसा अजया गहिति॥१॥ असंस्कृतं जीवितं मा प्रमादीः, जरोपनीतस्य खलु नास्ति त्राणम् । एवं विजानीहि जनाः प्रमत्ताः, किन्नु विहिंस्रा अयता ग्रहीष्यन्ति || १ || ___ पदार्थान्वयः—असंखयं संस्कार-रहित, जीवियं जीवन है, मा पमायए—प्रमाद मत करो, हु—जिससे, जरोवणीयस्स—जरा के समीप आने पर, नत्थि ताणं—कोई रक्षक नहीं है, एवं इस प्रकार, विजाणाहि—तू जान (जो), जणे—जन, पमत्ते—प्रमादी हैं, विहिंसा-नाना प्रकार की हिंसा करने वाले हैं, अजया. अजितेन्द्रिय हैं, किण्णु-किसकी शरण, गहिति–ग्रहण करेंगे। मूलार्थ यह जीवन संस्कार-रहित है, इसलिए हे शिष्य! तू प्रमाद मत कर, बुढ़ापे के समीप आने पर कोई भी रक्षक नहीं बनता, इस बात को तू समझ और (फिर यह भी सोच कि) जो जन प्रमादी हैं, हिंसक हैं और इन्द्रियों के वशीभूत हैं वे किसकी शरण में जाएंगे? टीका—इस गाथा में प्रमाद के त्याग की शिक्षा बड़े ही सुन्दर ढंग से दी गई है। गुरु शिष्य को उपदेश करते हुए कहते हैं कि यह जीवन संस्कारों से रहित अर्थात् चिरस्थायी नहीं, इसलिए तू प्रमाद मत कर। __ जीवन की क्षण-भंगुरता के विषय में दो मत नहीं हैं। आयु के टूटे हुए बन्धन को कोई नहीं जोड़ सकता। मनुष्य तो क्या, इन्द्र, महेन्द्र आदि भी टूटी हुई आयु का सन्धान नहीं कर सकते । संसार की । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 179 / चउत्थं असंखयं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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