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________________ प्रत्यय का लोप हो गया है, इसलिए इन दोनों शब्दों का क्रम से—यशस्वी और बलवान्—अर्थ करना किसी प्रकार से असंयत नहीं है। अब उसके अन्य फल के विषय में कहते हैंभोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं । पुव्विं विसुद्ध-सद्धम्मे, केवलं बोहि बुझिया ॥१६॥ भुक्त्वा मानुष्यकान्भोगान्, अप्रतिरूपान्यथायुषम् । पूर्वं विशुद्ध-सद्धर्मा केवलां बोधिं बुद्ध्वा || १६ ॥ पदार्थान्वयः—माणुस्सए—मनुष्य के, अप्पडिरूवे—उपमारहित, भोए–भोगों को, अहाउयं—आयु-पर्यन्त, भोच्चा–भोग करके, पुट्विं—पूर्व, विसुद्ध—निर्मल, सद्धम्मे—सद्धर्म में, केवलं-शुद्ध, बोहि—बोधि को, बुज्झिया–प्राप्त करके । ___मूलार्थ मनुष्य के अनुपम काम-भोगों को आयु-पर्यन्त भोग करके यह जीव पूर्व की तरह विशुद्ध सद्धर्म में निष्कलंक बोधि को प्राप्त कर लेता है। ___टीका–फिर वह पुण्यात्मा जीव मनुष्य के अनुपम काम-भोगों को आयु-पर्यन्त भोग करके पूर्व-जन्म में अर्जित किए हुए निदान-रहित शुद्ध धर्म के अनुसार निष्कलंक बोधि को प्राप्त कर लेता है। निष्कलंक बोधि अरिहन्त धर्म की प्राप्ति रूप होती है। एतदर्थ ही सूत्र में केवल-बोधि यह कहा गया है, अर्थात् वह जीव अन्त में शुद्ध धर्म की प्राप्तिरूप बोधि को प्राप्त कर लेता है। ___ इस सारे कथन का तात्पर्य यह है कि पुण्यात्मा जीव के पुण्योदय में अनेकों ही पुण्यकार्य होते हैं। जिस प्रकार उन्होंने पूर्व जन्म में इस विशुद्ध धर्म को प्राप्त किया था उसी प्रकार वे इस जन्म में भी उसी शुद्ध धर्म को प्राप्त कर लेते हैं। पुण्यात्मा का यह लक्षण है कि सांसारिक विषय तो उसका पीछा छोड़ते नहीं, परन्तु वही उनको त्यागवृत्ति द्वारा एक दिन छोड़ देता है। इसी हेतु से यथायु–आयु-पर्यन्त काम-भोगों के भोगने का उल्लेख किया गया है। _ यदि ऐसा ही है तो फिर पुण्यात्मा जीव उन्हें छोड़ता कब है? इसका समाधान करते हुए यहां पर 'यथायु' शब्द सामान्य अर्थ का बोधक है। इस कथन से पुण्यात्मा के सामर्थ्यमात्र का बोध कराया गया है, अथवा जो संयम का ग्रहण नहीं कर सकते ऐसे गृही-जनों की अपेक्षा से यह उल्लेख है, क्योंकि उनके रहते हुए उनकी ऋद्धि का विनाश नहीं हो सकता, जैसे आनन्द आदि श्रावकों की ऋद्धि का विनाश नहीं हुआ। इसलिए पुण्यवान् जीव को फिर बोधि—जिनधर्म की प्राप्ति भी हो सकती है। विशुद्धधर्म अथवा बोधि की प्राप्ति के बाद वे पुण्यात्मा जीव क्या करते हैं, अब इस विषय की चर्चा निम्नलिखित गाथा में की जाती है चउरंगं दुल्लहं नच्चा, संजमं पडिवज्जिया । तवसा धुयकम्मसे, सिद्धे हवइ सासए ॥ २० ॥ . श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 177 । तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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