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________________ पूर्वोक्त दश अङ्गों में से प्रथम अङ्ग का कामस्कन्धों के रूप में वर्णन हो चुका, अब शेष के नव अङ्गों का वर्णन निम्नलिखित गाथा में किया जाता है मित्तवं नाइवं होइ, उच्चागोए य वण्णवं । अप्पायंके महापन्ने, अभिजाए जसो बले ॥१८॥ मित्रवान्जातिमान्भवति, उच्चैर्गोत्रश्च वर्णवान् । अल्पातंकः महाप्राज्ञः, अभिजातो यशस्वी बली || १८ || .. पदार्थान्वयः—मित्त—मित्रवान्, नाइवं—ज्ञातिमान्, उच्चागोए—उच्च गोत्र वाला, य—और, वण्णवं वर्ण वाला, अप्पायंके—अल्प रोग वाला, महापन्ने—महाप्राज्ञ, अभिजाए–विनयवान्, जसो—यश वाला, बले—बल वाला, होइ—होता है। मूलार्थ स्वर्ग से आया हुआ जीव मित्रों वाला, ज्ञाति वाला, उच्चगोत्री, सुन्दर वर्ण वाला, रोग-रहित, महाप्राज्ञ, विनयवान्, यशस्वी और बल वाला होता है। ___टीका—इस गाथा में शेष नौ अंगों का निर्देश किया गया है। स्वर्ग से आए हुए जीव का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि वह पुण्यात्मा जीव इस संसार में बहुत से मित्रों वाला होता है, अधिक सम्बन्धियों वाला होता है, तथा ऊंचे कुल में जन्म लेने वाला होता है। उसके शरीर का वर्ण भी बड़ा सुन्दर होता है, अर्थात् उसके शरीर का रंग स्निग्ध और सुन्दर वर्ण वाला होता है तथा उसके शरीर में रोगों का आक्रमण बहुत ही कम होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह रोग-रहित होता है एवं बुद्धिशाली—अन्य मनुष्यों की अपेक्षा अधिक बुद्धि रखने वाला, विनयशील, यशस्वी और बलशाली होता है। उपर्युक्त गुण उस आत्मा में स्वभाव से ही होते हैं, अर्थात् पूर्वोपार्जित शेष रहे शुभ कर्मों के प्रभाव से ये सब वस्तुएं उस आत्मा को बिना ही यत्न के प्राप्त हो जाती हैं। किसी साधन विशेष के अनुष्ठान की उसे आवश्यकता नहीं रह जाती। यद्यपि शास्त्रों में औदारिक शरीर को रोगालय अर्थात् रोगों का घर कहा गया है, इसलिए औदारिक शरीर रखने वाला कोई भी व्यक्ति सर्वथा रोग-रहित नहीं हो सकता, अतः इस संसार में आने वाले स्वर्गीय व्यक्ति को रोग-रहित कहना कुछ असंगत सा प्रतीत होता है। परन्तु गाथा में आए हुए 'अल्पातंक' शब्द के अर्थ पर विचार करने से यह असंगति दूर हो सकती है। ‘अल्प' शब्द का अभाव और स्तोक अर्थात् थोड़ा, ये दो अर्थ होते हैं। इनमें भी स्तोक अर्थ अधिक प्रसिद्ध है, परन्तु स्वर्गीय जीव में इन दोनों ही अर्थों की संगति हो सकती है। वह इस प्रकार से कि या तो उस पुण्यशाली स्वर्गीय व्यक्ति को किसी रोग से वास्ता ही नहीं पड़ता, अर्थात् उस पर किसी रोग का आक्रमण ही नहीं होता और यदि किसी समय उस पर रोगों का थोड़ा बहुत आक्रमण हो भी जाए तो वह आक्रमण उसके पौद्गलिक सुखों में किसी प्रकार से प्रतिबन्धक नहीं हो सकता। यही उसके पुण्य की महिमा है। यश और बल ये दोनों शब्द 'मतुप् प्रत्ययान्त' हैं, परन्तु प्राकृत भाषा के नियमानुसार यहां पर श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 176 / तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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