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________________ उद्देश्य बनाएं। इसी में उनके मानव-जन्म की सार्थकता है। - पहला अङ्ग काम-स्कन्ध. खेत्तं वत्थु हिरण्णं च, पसवो दासपोरुसं । चत्तारि कामखन्धाणि, तत्थ से उववज्जई ॥ १७ ॥ क्षेत्रं वास्तु हिरण्यञ्च, पशवो दास-पौरुषम् । चत्वारः कामस्कन्धाः, तत्र स उपपद्यते || १७ || पदार्थान्वयः खेत्तं क्षेत्र, वत्थुप्रासाद, हिरण्णं सुवर्ण आदि पदार्थ, च-और, पसवो—पशु, दास दास-नौकर, पोरुसं—पुरुषों का समूह व सेना, चत्तारि—चार, कामखंधाणि—काम के स्कन्ध हैं, तत्थ से—वहां पर (वह जीव), उववज्जई—उत्पन्न होता है। ___ मूलार्थ क्षेत्र, वास्तु अर्थात् राजमहल, हिरण्य अर्थात् सोना-चांदी आदि, पशु और दास-समूह, ये चारों काम के स्कन्ध अर्थात् अंग हैं। ये चारों स्कन्ध जहां पर विद्यमान हों वहां पर देवलोक से आया हुआ जीव जन्म धारण करता है। टीका इस गाथा में देवलोक से च्यवकर आने वाले जीव किस कुल में, किस स्थान में और किस प्रकार की विभूति में जन्म लेते हैं, इस बात का वर्णन किया गया है। जिस कुल में व घर में पहले ही क्षेत्र अर्थात् ग्राम, नगर, आराम आदि, वास्तु अर्थात् प्रासाद, भूमि, गृह आदि, हिरण्य अर्थात् सोना-चांदी आदि, पशु अर्थात् अश्व, गो, भैंस आदि, दास अर्थात् दास-दासियों का समूह, ये चारों प्रकार के ऐश्वर्य विद्यमान हों, उसी कुल में स्वर्गच्युत पुण्यशाली जीव जन्म लेते हैं। ये चारों ही काम-भोग के साधन होने से काम-स्कन्धं या कामांग कहे जाते हैं, क्योंकि इनके बिना सांसारिक सुखों एवं विषय-भोगों की उपलब्धि नहीं हो सकती, अतः क्षेत्र वास्त, हिरण्य, पशु और दास यह चारों अंग जितने भी सांसारिक सुख हैं उन सब के मूल कारण हैं। इनको स्कन्ध इसलिए कहते हैं कि ये सभी पुद्गल के स्कन्ध अर्थात् समूह हैं। इसलिए इनसे पौद्गलिक सुखों की ही प्राप्ति हो सकती है और आत्मिक सुख तो इनसे कोसों दूर है। नेत्रों के द्वारा जो वस्तु का प्रत्यक्ष होता है, वह चाक्षष ज्ञान कहलाता हआ भी आत्मिक ज्ञान है, परन्त वस्त की मनोज्ञता और अमनोज्ञता यह पुद्गल-स्वभाव-जन्य है। यहां पर इतना और समझ लेना चाहिए कि जो पुण्यात्मा जीव हैं उनको तो उनके शेष रहे पुण्यकर्मों के अनुसार पौद्गलिक सुखों की बिना ही यत्न किये प्राप्ति हो जाती है, उनको इन सुखों की प्राप्ति के लिए तप आदि कर्मों का अनुष्ठान नहीं करना पड़ता। वे तो निर्जरा के लिए ही सब कर्म करते हैं। यदि उनके समस्त कर्मों की निर्जरा अभी तक नहीं हुई हो तो उनको ये सुख स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं और अन्य साधारण जीवों को उनकी प्राप्ति के लिए अधिक-से-अधिक प्रयत्न करने की अपेक्षा रहती है। श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 175 / तइ चाउरंगिज्जं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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