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________________ अब स्वर्ग-प्राप्त जीव की अवस्था का वर्णन करते हैं विसालिसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तर-उत्तरा । महासुक्का व दिप्पंता, मन्नंता अपुणच्चवं ॥ १४ ॥ विसदृशैः शीलैः, यक्षाः उत्तरोत्तराः । महाशुक्ला इव दीप्यमानाः, मन्यमाना अपुनश्च्यवम् ॥ १४॥ पदार्थान्वयः–विसालिसेहिं—नाना प्रकार के, सीलेहिं—आचरणों से, जक्खा–यक्षदेव, उत्तर-उत्तरा—प्रधान से प्रधान होते हैं, महासुक्का—महाशुक्ल को, व–तरह, दिप्पंता–प्रकाशमान् होते हुए, अपुण—फिर नहीं, च्चवं—मृत्यु (ऐसे), मन्नंता—मानते हुए। ___मूलार्थ—जीव नाना प्रकार की शिक्षा और व्रतों के अनुष्ठान के कारण प्रधान से प्रधान देव हो जाते हैं और सूर्यादि की भांति महाशुक्ल प्रकाश करते हुए एवं अपने च्यवन को भी नहीं मानते हुए वहां रहते हैं। टीका—इस लोक में जब प्राणी नाना प्रकार की उत्तम शिक्षाओं का पालन करते हैं और नाना प्रकार के शीलवत आदि का अनुष्ठान करते हैं तब उसके प्रभाव से वे स्वर्गलोक में प्रधान से प्रधान देव बनते हैं. अनत्तर विमान आदि महाविमानों में उत्पन्न होते हैं। वे और उनके विमान सर्य और चन्द्रमा की तरह प्रकाशमान होते हैं, क्योंकि उत्तरोत्तर विमान महाशुक्ल ही होते हैं, इसीलिए उनका सूर्य और चन्द्रमा की तरह प्रकाश है। इतना ही नहीं, किन्तु पल्योपम, सागरोपम आदि की दीर्घायु. और अति सुख प्राप्ति के कारण वे अपनी मृत्यु को भी बिल्कुल भूल जाते हैं। उन्हें यह भान ही नहीं रहता कि पुण्य-कर्मजन्य फल की समाप्ति पर कभी हमारा यहां से च्यवन भी होगा। वे तो अपने को मृत्यु से सदा रहित मानते हुए वहां पर रहते हैं। यहां पर इतना स्मरणीय है कि देवों में इस प्रकार का भाव होना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। उनके कल्पनातीत सुख और आयु-सम्बन्धी मान को देखते हुए यह कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है और वे तो वैसे भी अमर कहलाते हैं। परन्तु इस संसार में तो ऐसे संख्यातीत मनुष्य निकलेंगे कि जिनका अति स्वल्पसुख और स्वल्पतम आयु के होने पर भी उनको अपनी मृत्यु का जरा भी ध्यान नहीं रहता है। उनकी प्रवृत्ति को देखते हुए तो ऐसा लगता है कि मानो वे देवताओं से भी अपने को अधिक अमर माने हुए बैठे हैं। बस, आश्चर्य है तो यही है। ___ गाथा में आए हुए 'विसालिसेहिं' शब्द का मागधी भाषा में 'विसदृश' 'नाना प्रकार' ही अर्थ किया जाता है और 'उत्तरोत्तर' शब्द के साथ 'तिष्ठंति' क्रिया का अध्याहार कर लेना चाहिए। ऊपर की गाथा में इस बात का उल्लेख किया गया है कि स्वर्गलोक में रहने वाले वे देव अपनी मृत्यु को भी भूल जाते हैं। अब शास्त्रकार उसका कारण बताते हैं अप्पिया देवकामाणं, कामरूव विउव्विणो । उड्ढं कप्पेसु चिट्ठन्ति, पुव्वा वाससया बहू ॥ १५ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 172 / तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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