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अर्पिता देवकामानां, कामरूप-विकुर्वाणाः ।
ऊर्ध्वं कल्पेषु तिष्ठन्ति, पूर्वाणि वर्षशतानि बहूनि ॥१५॥ पदार्थात्वयः—अप्पिया—प्राप्त हुए, देवकामाणं-दिव्य-कामभोगों को, कामरूव—इच्छानुसार, विउविणो—वैक्रिय करने वाले, उड़े-ऊंचे, कप्पेसु–कल्प विमानों में, चिट्ठति–ठहरते हैं, पुव्वा-पूर्व, वास–वर्ष, सया–सौ, बहू-बहुत ।
___ मूलार्थ-देव-कामों को प्राप्त हुए इच्छानुकूल वैक्रिय करने वाले जीव ऊंचे कल्पों अर्थात् विमानों में सैकड़ों पूर्व वर्षों तक अर्थात् असंख्यात काल पर्यन्त ठहरते-निवास करते हैं।
टीका—पूर्वोपार्जित पुण्य-संचय के प्रभाव से देवगति को प्राप्त हुए जीव ऊंचे-से-ऊंचे कल्पों अर्थात् देवलोकों में जा विराजते हैं, फिर वहां पर उनको अपनी इच्छा के अनुसार रूप बना लेने की शक्ति और नाना प्रकार की वैक्रिय-क्रियाओं से यथेष्ट रूप धारण करने की लब्धि प्राप्त हो जाती है, वे जो चाहें बन सकते हैं। यह सब कुछ तप और संयम के फल का चमत्कार है। उनका वहां पर असंख्यात वर्षों तक निवास रहता है। यहां पर वृत्तिकार ने पूर्वो के वर्षों की गणना इस प्रकार की है 'पूर्वाणि वर्षसप्ततिकोटिलक्ष-षट्पंचाशत-कोटिसहस्रपरिमितानि' अर्थात् ७० लाख करोड़ वर्ष, ५६ हजार करोड़ वर्ष, ये सब मिलकर एक पूर्व के वर्ष होते हैं, सो ऐसे असंख्यात. पूणे तक वे जीव स्वर्गलोक में रहते हैं। इस भाव की सूचना के लिए ही मूल-गाथा में ‘बहू' शब्द का प्रयोग किया गया
यद्यपि यहां पर यह शंका हो सकती है कि अगर सूत्रकार को 'बहू' शब्द का असंख्यात अर्थ ही अभीष्ट था तो वे 'बहू' के स्थान में असंख्यात शब्द का ही उल्लेख करते। उन्होंने ऐसे अप्रसिद्ध शब्द का प्रयोग क्यों किया? इसका समाधान यह है कि सूत्रकार ने इसलिए 'बहू' शब्द का उल्लेख किया है कि उन्होंने इसके साथ यह भी सिद्ध करना था कि पूर्वो और वर्षों के तप-संयम का इतना महान् फल प्राप्त होता है, क्योंकि शास्त्रों में संयम और तप के योग्य पूर्वो और वर्षों की ही आयु बताई गई है। पल्योपम और सागरोपम की आयु तप और संयम के योग्य नहीं होती। जैसा कि वृत्तिकार ने लिखा है 'पूर्ववर्षशतायुषामेव चरणयोग्यत्वेन विशेषतो देशनौचित्यमिति ख्यापनार्थमित्थमुपन्यासः' सो इसलिए इन शब्दों का ग्रहण किया गया है।
इससे सिद्ध हुआ कि देवों को जो अपनी मृत्यु का भान नहीं होता उसका कारण उनकी इतनी लम्बी स्थिति और उनको कल्पनातीत ऐश्वर्य की प्राप्ति ही है। इसी से उनको अपनी मृत्यु का कभी स्मरण भी नहीं होता।
__अब निम्नलिखित गाथा में इस बात पर विचार किया जाता है कि देव-आयु के समाप्त होने के बाद जब उन जीवों का च्यवन होता है तब वे जीव कहां पर आकर उत्पन्न होते हैं
तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया । उवेन्ति माणुसं जोणिं, से दसंगेऽभिजायए ॥ १६॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 173 / तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं
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