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केवल इतना ही है कि अग्नि के तेज में दीप्ति के सिवाय उष्णता की अधिकता है और जीवन्मुक्त आत्मा की 'तपस्तेजोज्ज्वलितत्वेन घृततर्पिताग्निसमानः', अर्थात् घृत-तर्पित अग्नि के समान जो अपने तप और तेज से प्रदीप्त हो रहा है। ___ ऊपर दिए गए विवेचन का सारांश यह है कि प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को सरल, कषायमुक्त और धर्म-युक्त होकर आत्मिक गुणों के विकास द्वारा जीवन्मुक्ति–सदेहमोक्ष का आनन्द लूटते हुए परम-निर्वाण—विदेह-मोक्ष को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। गुरुजनों का शिष्य के लिए जो हितकर उपदेश है अब उसके विषय में कहते हैं
विगिंच कम्मुणो हेउं, जसं संचिणु खंतिए । सरीरं पाढवं हिच्चा, उड्ढं पक्कमई दिसं ॥ १३ ॥ वेविग्धि कर्मणो हेतुं, यशः संचिनु क्षान्त्या ।
शरीरं पार्थिवं हित्वा, ऊर्ध्वा प्रक्रामति दिशम् || १३ ॥ पदार्थान्वयः–कम्मुणों-कर्म के, हेउं हेतु को, विगिंच-दूर कर, जसं—संयम रूप यश को, संचिणु-संचित कर, खंतिए-क्षमा से, पाढवं—पार्थिव, सरीरं-शरीर को, हिच्चा–छोड़कर, उड़े-ऊंची, दिसं—दिशा को, पक्कमई-प्राप्त होता है। ... मूलार्थ हे शिष्य ! कर्म के हेतु को दूर कर और क्षमा से संयमरूप यश का संचय कर, ऐसा करने वाला पुरुष इस पार्थिव शरीर को छोड़कर ऊंची दिशा अर्थात् स्वर्ग व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
टीका—गुरु शिष्य को उपदेश करते हैं कि हे शिष्य! मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग आदि जो कर्म-बन्ध के हेतु हैं उनको तू अपने से दूर कर दे और क्षमा के द्वारा संयमरूप यश का संचय कर । जो जीव इस प्रकार का आचार करता है वह इस दृश्यमान पार्थिव शरीर का परित्याग करके ऊंची दिशा को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् स्वर्ग अथवा मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। कर्मों के सर्वथा नष्ट होने से मोक्ष और पुण्य-कर्मों के शेष रहने पर स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
यद्यपि यश शब्द.का प्रसिद्ध अर्थ कीर्ति या मान-बड़ाई होता है, परन्तु शास्त्रकार को यहां पर सूत्र शैली के अनुसार उसका संयम और विनय अर्थ ही अभिप्रेत है तथा उसके संचय के हेतु जो क्षमा, मार्दवादि गुण बताए गए हैं, वह भी तभी संगत हो सकता है जबकि कर्म-बन्ध के हेतु मिथ्यात्व एवं कषाय आदि का नाश हो गया हो और क्षमा आदि द्वारा कर्मनाशक संयम का संचय कर लिया हो तो जरूरी है कि इस पार्थिव देह के वियोग होने के बाद वह जीव स्वर्ग अथवा मोक्ष इन दोनों में से किसी एक को प्राप्त कर ही लेता है। इसी उद्देश्य से शास्त्रकार ने गुरुजनों के व्याज से शिष्य को लक्ष्य में रखकर उपदेश देने का यत्न किया है ताकि भव्य जीव अपने कर्तव्य को समझकर आत्म-श्रेय की ओर अग्रसर हो सकें।
ऊपर बताया गया है कि कर्म का सर्वथा नाश होने से मोक्ष, और कुछ शुभ कर्म शेष रह जाएं तो जीव को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 171 । तइ चाउरंगिज्जं अज्झयणं