________________
अनेक बार होगी। इनको दुर्लभ कहना व मानना सिवाय अज्ञानता के और कुछ नहीं हैं। तब सिद्ध हुआ कि इन सांसारिक पदार्थों की तरफ जरा भी ध्यान न देकर विवेकशील पुरुष को इन दुर्लभ अंगों के द्वारा अपने परमश्रेय मोक्ष रूप साध्य की सिद्धि की ओर ही झुके रहने का सतत प्रयत्न करना चाहिए। अब उक्त चारों अंगों के ऐहिक फल के विषय में कहते हैं
सोही. उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ । . निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्तिव्व पावए ॥ १२ ॥
शुद्धिः ऋजुभूतस्य, धर्मः शुद्धस्य तिष्ठति ।
निर्वाणं परमं याति, घृतसिक्त इव पावकः ॥ १२ ॥ पदार्थान्वयः-सोही-शुद्धि, उज्जुयभूयस्स–सरल की होती है, धम्मो धर्म, सुद्धस्स-शुद्ध के हृदय में, चिट्ठई-ठहरता है, निव्वाणं मोक्ष, परमं—प्रधान, जाइ—पाता है, घयसित्त—घृप्त से सिंचन की हुई, इव—जैसे, पावए—अग्नि ।
मूलार्थ मोक्षमार्गानुगामी जीव की ही शुद्धि होती है और शुद्ध हृदय में ही धर्म ठहर सकता है, अतः धर्म-युक्त शुद्ध हृदय वाला जीव घृत-सिक्त अग्नि की भांति देदीप्यमान होता हुआ कल्याण-स्वरूप परम शांत जीवन-मोक्ष पद को प्राप्त हो जाता है। ____टीका—इस गाथा में जीवन्मुक्त के स्वरूप का वर्णन किया गया है। जीवन्मुक्त की आत्मा अत्यन्त सरल होती है, उसमें क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों का निवास नहीं होता, इसलिए वह शुद्ध होती है। इस प्रकार की कषाय-रहित शुद्ध आत्मा में ही धर्म को स्थान प्राप्त हो सकता है, जो आत्मा कषायों से मलिन हो रही हो उसमें धर्म के ठहरने के लिए जगह ही नहीं होती। क्षमा आदि दशविध यति-धर्म की स्थिति तो निर्मल और शुद्ध हृदय में ही हो सकती है। जैसे मलयुक्त शरीर में बहुमूल्य औषधि भी निष्फल हो जाती है, अर्थात् उसका कोई असर नहीं होता, ऐसे ही कषाय-युक्त आत्मा पर भी धर्म के स्वरूप का कोई प्रभाव नहीं होता, इसलिए धर्म की प्रतिष्ठा के लिए कषाय-निर्मुक्त शुद्ध आत्मा ही अपेक्षित है। कषायमुक्त-शुद्ध और धर्मयुक्त आत्मा को ही जीवन्मुक्त कहते हैं, क्योंकि शुद्ध और धर्म-युक्त आत्मा अपने आत्मगुणों का विकास करता हुआ घृतसिक्त अग्नि की तरह अपने स्वाभाविक तेज से देदीप्यमान होकर इस संसार में जीते जी ही मुक्तात्मा की भांति विचरता है और शरीर-त्याग के बाद परम शांत और कल्याणरूप मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है।
इस जगह पर जो घृत-सिक्त अग्नि का दृष्टान्त दिया गया है उसका तात्पर्य यह है कि घृतसिक्त अग्नि में जितनी तेजस्विता होती है उतनी तृणवर्द्धित अग्नि-ज्वाला में नहीं। तब इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकार घृतसिक्त अग्नि अधिक तेज वाली होती है, उसी प्रकार कषाय-मुक्त और धर्म-युक्त आत्मा के बढ़े हुए तपोबल में भी वैसी ही उत्कट प्रभावपूर्ण तेजस्विता होती है। अन्तर ।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 170 । तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं