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माणुसत्तम्मि आयाओ, जो धम्म सोच्च सद्दहे । तवस्सी वीरियं लड़े, संवुडे निद्धणे रयं ॥ ११ ॥
मानुषत्वे आयातः, यो धर्मं श्रुत्वा श्रद्धत्ते ।
तपस्वी वीर्यं लब्ध्वा, संवृत्तो निर्धनोति रजः ॥११॥ पदार्थान्वयः—माणुसत्तम्मि—मनुष्य के भव में, आयाओ-आया हुआ, जो–जो, धम्म-धर्म को, सोच्च–सुन करके, सद्दहे श्रद्धा करता है, तवस्सी–तपोनिष्ठ, वीरियं—संयम में पुरुषार्थ को, लढुं—प्राप्त करके, संवुडे—आस्रव-रहित-संवर-युक्त होकर, रयं-कर्म-रज को, निझुणे—धुन देता है।
मूलार्थ जो जीव मानव-जन्म को प्राप्त करके धर्म का यथाविधि श्रवण करता है और धर्म पर दृढ़तर विश्वास रखता हुआ उसके अनुसार संयम को ग्रहण करता है। ऐसा संवृत-आस्रवरहितनिष्पाप तपस्वी-तपोनिष्ठ आत्मा अपने चिर-संचित कर्म-मल को धुन देता है—छिन्न-भिन्न कर देता है, अर्थात् उससे अलग हो जाता है।
टीका—इस गाथा में उक्त चारों अंगों की यथार्थ फल-श्रुति का उल्लेख किया गया है। यह बात तो असंदिग्ध ही है कि मोक्ष-सुख की प्राप्ति का आधार ज्ञानावरणीयादि चार प्रकार के आत्मा के ज्ञान दर्शन, चारित्र और वीर्य आदि गुणों का घात करने वाले घाति कर्मों के क्षय पर अवलम्बित है और उन कर्मों का क्षय निर्जरा और संवर (आश्रवद्वारों का निरोध करना) के सम्यग् अनुष्ठान पर आश्रित है। संवर और निर्जरा के लिए श्रद्धा की आवश्यकता होती है तथा श्रद्धा-प्राप्ति के निमित्त धर्म के श्रवण की जरुरत है और धर्म का यथाविधि श्रवण करना मनुष्यता की अपेक्षा रखता है, अतः मनुष्यता से लेकर श्रुति, श्रद्धा, चारित्र-ग्रहण, संवर और निर्जरा तक को प्राप्त करने वाली आत्मा कर्मों का क्षय करने में समर्थ हो जाती है। कर्म-क्षय का अन्तिम फल केवलज्ञान और मोक्ष है।
इस सारे कथन का सारांक्ष यही है कि मनुष्यत्व आदि चारों अंगों को प्राप्त करने वाला जीव कर्म की कठिन बेड़ियों को तोड़कर अपना पूर्ण विकास कर लेने में समर्थ हो जाता है जिसका अन्तिम फल आत्म-स्वातन्त्र्य या मोक्ष का निरतिशय सुख है।
यहां पर इस बात को भूल नहीं जाना चाहिए कि मोक्ष के कारणभूत इन चारों अंगों में श्रुति, श्रद्धा और संयम में वीर्य ये तीनों तो आधेय हैं और मनुष्यत्व इनका आधार है, इसलिए आधारभूत प्रधान अंग का यह कर्तव्य है कि वह श्रुति, श्रद्धा और पुरुषार्थ के द्वारा अपने विकास में किसी प्रकार की भी कमी शेष न रखे, इसी में उसका श्रेय है। कितने ही मूढ़ लोगों ने धन-धान्य और पुत्र-पौत्र आदि परिवार को ही दुर्लभ मान रखा है, परन्तु यह उनकी बड़ी भारी भूल है। वास्तव में तो दुर्लभ वस्तु वही है कि जिसके प्राप्त होने पर इस जीव को परम कल्याण की प्राप्ति हो सके और जिसके अप्राप्त होने से इस जीव को जन्म-मरण की परम्परा के चक्र में घूमते हुए अधिकतर दुख का ही अनुभव करना पड़े। इसके अतिरिक्त पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति तो इस जीव को अनेक बार हुई और
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 169 | तइ चाउरंगिज्ज अज्झयणं