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पदार्थान्वयः-सुई-श्रुति, च—और, सद्धं श्रद्धा को, लटुं–प्राप्त करके, वीरियं—पुरुषार्थ, पुण—फिर, दुल्लहं—दुर्लभ है, बहवे—बहुत से, रोयमाणाऽवि–रुचि करते हुए भी, एणं इसको, नो पडिवज्जए—ग्रहण नहीं कर सकते ।
मूलार्थ—मनुष्यत्व के साथ श्रुति और श्रद्धा के प्राप्त हो जाने पर भी संयम में पुरुषार्थ का होना अति दुर्लभ है, क्योंकि बहुत से जीव धर्म में रुचि होने पर भी उसे ग्रहण नहीं कर पाते।
टीका—कदाचित् किसी जीव को मनुष्यत्व, धर्म का श्रवण और धर्म में पूर्ण अभिरुचि, ये तीनों साधन मिल भी जाएं तो भी इनके साथ वीर्य-पुरुषार्थ का मिलना और भी कठिन है। अतएव, बहुत से जीवों की धर्म में अभिरुचि होते हुए भी वे धर्म का यथार्थरूप से ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि जीव के संयम-विषयक पुरुषार्थ का प्रतिबन्धक चारित्र-मोहनीय कर्म है। इसलिए जब तक चारित्र-मोहनीय कर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम नहीं होता, तब तक इस जीव को चारित्र ग्रहण करने की अभिरुचि पैदा नहीं हो सकती और जब तक चारित्र का ग्रहण नहीं किया जाता तब तक आस्रव के द्वारों—पाप के मार्गों का बन्द होना कठिन है और आस्रवों का निरोध हुए बिना मोक्ष की आशा करना आकाश-कुसुम के समान बिल्कुल व्यर्थ है। एतदर्थ ही शास्त्रकारों ने वीर्य—पुरुषार्थ को परम आवश्यक समझते हुए दुर्लभ बताया है।
यहां यह शंका हो सकती है कि उक्त गाथा में केवल 'वीर्य' शब्द का ही उल्लेख किया गया है, जिसकी सरल और सीधी व्याख्या यही हो सकती है कि वीर्य अर्थात् पुरुषार्थ का होना दुर्लभ है, परन्तु इससे यह नहीं समझ में आता कि उसकी दुर्लभता किस विषय में है? इस प्रश्न का या शंका का संक्षेप से उत्तर या समाधान यही है कि शास्त्रकारों ने दो प्रकार से या दो प्रकार के नाम निर्देश से धर्म का वर्णन किया है, एक श्रुत-धर्म और दूसरा चारित्र-धर्म। श्रुत-धर्म का तो ऊपर आठवीं गाथा में उल्लेख आ चुका है और उसके द्वारा तो आत्मा की प्राप्ति सिद्ध हो चुकी है, अब शेष रहे हुए चारित्र-धर्म के विषय से ही वीर्य-पुरुषार्थ के करने का शास्त्रकार का अभिप्राय है, इसलिए मनुष्य-जन्म, श्रुति और श्रद्धा के साथ संयम-विषयक पुरुषार्थ का आचरण करना भी नितान्त आवश्यक है। यह बात भली-भांति सिद्ध हो गई और इस कथन से यह प्रमाणित हो गया कि मोक्ष की उपलब्धि में श्रुत और चारित्र दोनों ही धर्मों की समानरूप से उपयोगिता है। दोनों में से किसी एक के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, दोनों का समन्वय ही मोक्ष का साधक है। इसीलिए तत्त्वार्थ-सूत्र आदि शास्त्रों में 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' ज्ञान और क्रिया दोनों से ही मोक्ष का होना माना गया है।
इस पूर्वापर सन्दर्भ का संक्षिप्त सारांश यह है कि मनुष्य योनि में आने वाले जीव के लिए मनुष्यत्व, धर्म का श्रवण, धर्माभिरुचि और संयम-विषयक पुरुषार्थ ये चारों ही बातें अत्यन्त दुर्लभ हैं। किसी बड़े भारी पुण्यकर्म के उदय से ही इनकी प्राप्ति हो सकती है, यही इनकी दुर्लभता है।
भाग्यातिरेक से किसी भव्यात्मा को यदि इन चारों ही अंगों की प्राप्ति हो जाए तो उसका जो फल होता है, अब उसका वर्णन किया जाता है
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 168 । तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं.