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________________ · आहच्च सवणं लड़े, सद्धा परम दुल्लहा । सोच्चा नेयाउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई || ६ || कदाचिच्छ्रवणं लब्ध्वा, श्रद्धा परम-दुर्लभा । श्रुत्वा नैयायिकं मार्ग, बहवः परिभ्रश्यन्ति || ६ || पदार्थान्वयः—आहच्च—कदाचित्, सवणं श्रवण को, लद्धं प्राप्त करके, सद्धा श्रद्धा, परमदुल्लहा—परम दुर्लभ है, नेआउयं—न्यायकारी, मग्गं—मार्ग को, सोच्चा–सुन करके, बहवे—बहुत से, परिभस्सई भ्रष्ट हो जाते हैं। मूलार्थ कदाचित् धर्म-श्रवण करके भी फिर श्रद्धा का प्राप्त होना और भी दुर्लभ है, न्याय-मार्ग को सुन करके भी बहुत से जीव फिर विवेक से भ्रष्ट हो जाते हैं। टीका—कदाचित् मनुष्यत्व और धर्म का श्रवण ये दोनों कारण सौभाग्य से प्राप्त हो भी जाएं फिर भी धर्म पर दृढ़ विश्वास का होना अत्यन्त कठिन है। धर्म में उन्हीं आत्माओं की रुचि हो सकती है जिनका कि संसार-चक्र घट गया हो, काल-लब्धि प्रायः पूर्ण हो। जिनकी स्थिति इस योग्य नहीं है, उनमें बहुत से जीव न्यायमार्ग को जानकर भी धर्म से भ्रष्ट हो जाते हैं, क्योंकि उनका धर्म पर दृढ़ विश्वास नहीं हुआ होता, यदि हो जाता तो वे धर्म-मार्ग से कभी भ्रष्ट न होते। इसलिए धर्म-श्रवण के साथ श्रद्धा का होना अत्यन्त आवश्यक है। इसी भाव को व्यक्त करने के लिए उक्त गाथा में न्यायमार्ग का उल्लेख किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि न्याय-युक्त मार्ग को श्रवण करके उस पर विश्वास लाना चाहिए, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्-चारित्र का अनुसरण करना ही न्याययुक्त मार्ग है। इसी को दूसरे शब्दों में मोक्ष का मार्ग कहा गया है तथा काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ, इन पांच समवायों से जिस मार्ग की उत्पत्ति होती है उसी को न्याय-मार्ग कहते हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से भी न्याय-मार्ग की उत्पत्ति हो सकती है। इस प्रकार न्याय-मार्ग को सुनकर और समझकर भी बहुत से जीव श्रद्धा के न होने पर धर्म-मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं, इसलिए श्रद्धा का होना परम आवश्यक है। ___यदि विचार-पूर्वक देखा जाए तो संसार के जितने भी व्यावहारिक कार्य हैं वे सबके सब विश्वास पर ही अवलम्बित हैं, तब धार्मिक जगत् में श्रद्धा की कितनी आवश्यकता है, यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती, इसलिए जिज्ञासु जनों को श्रद्धामय होने का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। अब मनुष्यत्व, श्रुति और श्रद्धा इन तीन अंगों के मिल जाने पर भी संयम सम्बन्धी पुरुषार्थ की दुर्लभता के विषय में कहते हैं सुइं च लढे सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणाऽवि, नो य णं पडिवज्जए ॥१०॥ श्रुतिं च लब्ध्वा श्रद्धाञ्च, वीर्यं पुनर्दुर्लभम् । बहवो रोचमाना अपि, नो च तत्प्रतिपद्यन्ते ॥ १०॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 167 । तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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