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प्राप्त होने पर भी धर्म-श्रुति का प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि यह धर्म-श्रुति, तप, क्षमा और अहिंसा आदि सद्गुणों की जननी है, अर्थात् इसी से मनुष्य के हृदय में इन उक्त सद्गुणों का जन्म होता है, अतः इसका प्राप्त होना निःसन्देह दुर्लभ है।
अब यहां पर स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि धर्म क्या है, और किस अर्थ में उसका यहां पर ग्रहण किया गया है, और जिन शास्त्रों में धर्म का प्रतिपादन किया गया है वे धर्मशास्त्र कौन से हैं, जिनके द्वारा मनुष्य ने धर्म का श्रवण करना है ।
इस प्रश्न का तात्पर्य यह है कि धर्म शब्द का सम्बन्ध-वशात् अनेक अर्थों में व्यवहार होता है, जैसे कि—– ग्राम- धर्म, नगर-धर्म, देश-धर्म और राज-धर्म इत्यादि । हर एक मत या सम्प्रदाय में धर्म शब्द की अलग-अलग व्याख्या मिलती है । प्रत्येक सम्प्रदाय अपने - अपने नियमों या सिद्धान्तों को धर्म के नाम से पुकारता है तथा उन नियमों अथवा सिद्धान्तों का जिनमें उल्लेख किया गया हो, उनको वे धर्म-शास्त्र कहते हैं, परन्तु विचार करने से एक दूसरे द्वारा की हुई धर्म की व्याख्याएं आपस में मेल नहीं खातीं तथा एक दूसरे के सिद्धान्तों में विरोध दिखाई पड़ता है। इसलिए जिज्ञासु के लिए इस बात के निर्णय में बहुत ही कठिनता हो जाती है कि वह धर्म-सम्बन्धी किस व्याख्या को ठीक समझे और किस शास्त्र को वह धर्म शास्त्र के नाम से कहे, अथवा माने? इत्यादि ।
धर्म की सामान्य व्याख्या तो यह है कि जो धारण किया जाए अर्थात् जिसके धारण करने से पतन की ओर जाती हुई यह आत्मा रुक जाए और उत्थान की ओर प्रयाण करने लगे उसी का नाम धर्म है। उस धर्म का जिन शास्त्रों में वर्णन किया गया हो, उनको धर्म-शास्त्र कहते हैं । इसी भाव को हृदय में रखकर हमारे पूज्य सूत्रकार ने धर्मश्रुति के फल का निर्देश करते हुए धर्म और उसके प्रतिपादक धर्म-शास्त्रों के विषय में बड़ा ही सारगर्भित निर्वचन कर दिया गया है। उनके अभिप्राय के अनुसार धर्म का सजीव और आचरणीय स्वरूप तप, क्षमा और अहिंसा है और इनका प्रतिपादन जिन शास्त्रों धर्म शास्त्र हैं। बस यही धर्म और धर्मशास्त्र की सुचारू और ग्रहणीय व्याख्या है। यहां पर तप से द्वादशविध * तप, क्षमा से दशविध * यतिधर्म और अहिंसा से साधु के पांचों महाव्रतों का ग्रहण अभिप्रेत है ।
इसके अतिरिक्त श्रुतिधर्म की दुर्लभता का एक यह भी कारण है कि हर एक पदार्थ का ज्ञान श्रवण करने से ही होता है और उसका निश्चित होना भी श्रवण पर ही निर्भर है । इसीलिए श्रुतज्ञान को सबसे अधिक उपकारी माना गया है, अतः श्रुतज्ञान के विषय में मुमुक्षु पुरुष को कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
धर्म-श्रवण करने के पश्चात् ही उस पर श्रद्धा उत्पन्न होती है, इसलिए अब सूत्रकार श्रद्धा की दुर्लभता के विषय में कहते हैं—
★ १ २. इन सबका उल्लेख इसी सूत्र में अन्यत्र आएगा।
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 166 / तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं