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मनुष्य-गति के प्रतिबन्धक कर्मों का विनाश और शुद्धि की प्राप्ति ही मनुष्य जन्म का कारण है। मनुष्यगति के प्रतिबन्धक्र अनन्तानुबंधी कर्म माने गए हैं। जो जीव अपने अखंड पुरुषार्थ के द्वारा इन अनन्तानुबन्धी कर्मों का विनाश करके अनुक्रम से शुद्धता को प्राप्त कर लेता है वही जीव मनुष्य जन्म को प्राप्त करता है, इसलिए प्रतिबन्धक कर्मों का क्षय करना और पुरुषार्थ के द्वारा उनसे शुद्धि प्राप्त करना ही जीव का विकास-मार्ग अथवा उत्क्रान्ति-मार्ग कहा जाता है ।
यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि इस गाथा में जो 'अनुक्रम' और 'कदाचित् ' शब्द आए हैं, उनका अर्थ भवितव्यता या होनहार नहीं, किन्तु इनसे अनन्तानुबन्धी कर्मों का क्षय करने के लिए मनुष्यत्व के बिना अन्य कोई साधन नहीं, यही प्रमाणित करना है, क्योंकि किसी भी अन्य योनि
घोरतम परिश्रम करने पर भी विवेक रहित होने के कारण जीव सफल मनोरथ नहीं हो पाते। इससे प्रमाणित हुआ कि जब कभी जीव अपने गुरुतर पुरुषार्थ के द्वारा उन प्रतिबन्धक कर्मों को अपने से पृथक् करके कुछ विशेष शुद्धि को प्राप्त करते हैं, तभी जीवों को मनुष्य-भव की उपलब्धि का सौभाग्य प्राप्त हो पाता है ।
यहां पर ‘आणुपुव्वी’– 'आनुपूर्वी' यह तृतीया के अर्थ में जो प्रथमा विभक्ति का प्रयोग किया गया है, इसका प्रयोग प्राकृत के नियम के अनुसार समझ लेना चाहिए।
मनुष्यत्व के प्राप्त हो जाने पर भी श्रुति-धर्म की दुर्लभता का अब शास्त्रकार वर्णन करते हैं ।
यथा—
धर्म-श्रवण की सुदुर्लभता
माणुस्सं विग्गहं लद्धुं, सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सच्चा पडिवज्जन्ति, तवं खंतिमहिंसयं ॥ ८ ॥
मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा श्रुतिर्धर्मस्य दुर्लभा ।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते तपः क्षान्तिमहिंस्रताम् || ८ ||
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पदार्थान्वयः – माणुस्सं—–— मनुष्य का, विग्गहं— शरीर, लद्धुं - प्राप्त करके, धम्मस्स - धर्म की, सुई— श्रुति, दुल्लहा — दुर्लभ है, जं-जिसको, सोच्चा-सुन करके, तवं तप, खंतिं –— क्षमा, अहिंसयं—दया, पडिवज्जंति — प्राप्त करते हैं ।
मूलार्थ – मनुष्य- जन्म के प्राप्त होने पर भी धर्म की श्रुति अति दुर्लभ है, जिसको कि सुनकर तप, क्षमा और दया के भाव को ये जीव धारण करते हैं ।
टीका – पुण्य-संयोग से मनुष्यत्व के मिल जाने पर भी उसमें धर्म की श्रुति-धर्म का श्रवण करना और भी दुर्लभ है। यह जीव विषय-पोषक राग-रंग के श्रवण के लिए बिना किसी की प्रेरणा के स्वयं ही उद्यत रहता है, परन्तु सौभाग्यवश जहां धर्म के श्रवण करने का अवसर आता है, वहां पर सुज्ञ पुरुषों की प्रेरणा के होते हुए भी मनुष्य को प्रमाद अर्थात् आलस्य आकर दबाता रहता है, यही कि इसकी उस ओर रुचि ही नहीं होती । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि मनुष्य जन्म के श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 165 / तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं
कारण