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________________ पदार्थान्वयः—–कम्मसंगेहिं— कर्मों के संयोग से, सम्मूढा – निरन्तर मूढ़ हैं, दुक्खिया - दुखित हैं, बहुवेणा — बहुत वेदना से युक्त हैं, अमाणुसासु जोणीसु — मनुष्य योनि को छोड़कर शेष योनियों में, पाणिणो - प्राणी, विणिहम्मन्ति - पीड़ा को प्राप्त होते हैं । मूलार्थ — कर्मों के संयोग से जीव मूद्र हैं, दुखी हैं और बहुत-सी वेदनाओं से युक्त हैं। मनुष्य योनि को छोड़कर अन्य योनियों में प्राणी अधिक दुख भोगते हैं । टीका—इस गाथा में जीवों के पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों की फल-विचित्रता और फलतः अन्य योनियों की अपेक्षा मनुष्य योनि की श्रेष्ठता का दिग्दर्शन कराया गया है । यथा—कर्मों के संसर्ग से जीव अतिमूढ़ बने हुए हैं, इसीलिए वे शारीरिक और मानसिक दुखों से सन्तप्त हो रहे हैं। इतना ही नहीं, किन्तु शारीरिक और मानसिक वेदनाओं से वे अत्यन्त पीड़ित हो रहे हैं। मनुष्ययोनि को छोड़कर शेष नरक और तिर्यग्योनियों में जीव दुखों से अधिक पीड़ित होते हैं। यद्यपि मनुष्य-योनि में भी जीवों में दुख की बहुलता देखी जाती है, परन्तु वहां पर इतनी विशेषता है कि उपयुक्त साधन-सामग्री मिल जाए तो वे मनुष्य योनि में आए हुए जीव कर्मों के विकट जा को तोड़कर उनसे सदा के लिए पृथक् भी हो सकते हैं, लेकिन शेष - तिर्यग् आदि योनियों में यह बात नहीं, वे तो भोग-योनियां हैं। उनमें तो कर्मों का अन्त हो ही नहीं सकता, इसीलिए शास्त्रों में मनुष्य जन्म को अन्य सब योनियों की अपेक्षा श्रेष्ठ बताया गया है। मोक्ष को समीप लाने वाले और विकट कर्म बन्धनों को तोड़ने वाले केवलि - भाषित धर्म को ग्रहण करने की शक्ति मनुष्य-योनि प्राप्त जीव को ही है, अन्य को नहीं । अतएव मनुष्य जन्म की दुर्लभता, और विशेषता का वर्णन किया गया है। अतिमूढ़ता तो पशु आदि योनियों में ही पाई जाती है जो कि दुख और बन्धन का बलवान् कारण है। इसलिए मनुष्य जन्म को पाकर अपनी विवेक शक्ति के द्वारा चिर-संचित कर्म - बन्धनों को तोड़ने की अद्भुत शक्ति अपने में पैदा करना ही मनुष्य जन्म की विशेष सार्थकता है । · अब सूत्रकार इसी विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुव्विं कयाइ उ । जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥ ७ ॥ कर्मणान्तु प्रहान्या, आनुपूर्व्या कदाचन् तु । जीवाः शुद्धिमनुप्राप्ताः, आददते मनुष्यताम् ॥ ७ ॥ पदार्थान्वयः–तु–विशेष अर्थ का सूचक अथवा ' एवं ' अर्थ का बोधक है, कम्माणं कर्मों के, पहाणाए–क्षय से, आणुपुव्विं - अनुक्रम से, कयाइ — कदाचित् – कभी, जीवा – जीव, सोहिं— शुद्धि को, अणुपत्ता – प्राप्त हुए, आययंति — ग्रहण करते हैं, मणुस्सयं – मनुष्यता को । मूलार्थ –— कर्मों के क्षय से और अनुक्रम से किसी समय शुद्धि को प्राप्त होकर ये जीव मनुष्य जन्म को धारण करते हैं । टीका – इस गाथा में सूत्रकार ने मनुष्य जन्म की प्राप्ति का कारण बताने की कृपा की है । श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 164 / तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं.
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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