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________________ नियति, कर्म और पुरुषार्थ की कारणता अवश्य मिल जाती है। यहां पर 'गच्छंति' इस बहुवचन की क्रिया के स्थान में 'गच्छइ' यह एक वचन की क्रिया प्राकृत के नियमानुसार है और 'काय' शब्द का अर्थ यहां पर समूह है। अब फिर उसी विषय का स्पष्टीकरण करते हैं एगया खत्तिओ होइ, तओ चंडाल-बुक्कसो । तओ कीडपयंगो य, तओ कुन्थु पिवीलिया ॥ ४ ॥ ___एकदा क्षत्रियो भवति, ततश्चण्डालो बुक्कसः । __ततः कीटः पतंगश्च, ततः कुंथुः पिपीलिका || ४ || पदार्थान्वयः—एगया—किसी समय, खत्तिओ-क्षत्रिय, होइ—होता है, तो उसके पीछे, चंडाल-चंडाल–वा, बुक्कसो-बुक्कस, तओ—तदनन्तर, कीड—कीट, य—और; पयंगो—पतंग, तओ—उसके बाद, कुंथु–कुन्थु, पिवीलिया—चींटी (होता है)। ___मूलार्थ किसी समय यह जीव क्षत्रिय बनता है और किसी समय चंडाल और बुक्कस बन जाता है तथा कभी कीट, पतंग, कुंथु और पिपीलिका चींटी आदि की योनियों में उत्पन्न होता है। टीका—कर्मों के प्रभाव से संसार-चक्र में भ्रमण करता हुआ यह जीव कभी क्षत्रियादि कुलों में उत्पन्न होता है और कभी चंडाल तथा बुक्कसादि के रूप में जन्म लेता है एवं कर्म के प्रभाव से वही कीट, पतंग, कुंथु और चींटी आदि की योनियों में उत्पन्न होता है। उक्त गाथा में उल्लेख किए गए 'क्षत्रिय' शब्द से उच्च जाति और चंबल और बुक्कस शब्दों से नीच और वर्ण-संकर जातियों की सूचना दी गई है तथा कीट-पतंग और कुंथु-पिपीलिका शब्दों के प्रयोग से समस्त तिर्यग्जाति के जीवों का ग्रहण अभीष्ट है। तात्पर्य यह कि संसार में उच्च, नीच, देव, मनुष्य और तिर्यक् आदि ऐसी कोई भी जाति अथवा योनि शेष नहीं जिसमें जीव ने अपने-अपने कर्मों के अनुसार जन्म धारण न किया हो । देव और नरक का उल्लेख तीसरी गाथा में किया गया है एवं मनुष्य और तिर्यग्योनि का कथन इस चौथी गाथा में है। इस प्रकार शास्त्रकार ने चारों ही गतियों का संक्षेप से उल्लेख कर दिया है। इन्हीं चारों गतियों के समुदाय का नाम संसार-चक्र है। प्रत्येक जीव अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार इन्हीं चार गतियों में अपने जन्म-मरण की परम्परा का अनुभव करते रहते हैं। ___ गाथा में आये हुए 'बुक्कस' शब्द की व्याख्या वृत्तिकार ने इस प्रकार की है। यथा—ब्राह्मण और वैश्य स्त्री से उत्पन्न होने वाली सन्तान को अम्बोष्ठ कहते हैं, इसी प्रकार निषाद और अम्बोष्ठी के योग से जो सन्तान उत्पन्न हो उसका नाम बुक्कस है, परन्तु यहां पर आया हुआ 'बुक्कस' शब्द समस्त वर्ण-संकर जातियों का बोधक है। संक्षेप में ऊपर दिए गए वर्णन का तात्पर्य केवल इतना ही है कि मनुष्यों तथा पशुओं की उच्च श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 162 / तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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