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पदार्थान्वयःपया—प्रजा – जीव, संसारे — संसार में, नाणा - नाना प्रकार के, गोत्तासु — गोत्रों में, जाइसु–जातियों में, समावन्ना — प्राप्त हुए, णं - वाक्यालंकार में, पुढो — पृथक्-पृथक् जीव ने, विस्सं— जगत् को, भया - भर दिया, कम्मा - कर्म, नाणाविहा – नाना प्रकार के, कट्टु —करके ।
मूलार्थ — इस संसार में पृथक्-पृथक् जीवों ने नाना प्रकार के कर्मों के आचरण द्वारा नाना प्रकार के गोत्रों और जातियों में जन्म धारण करके इस विश्व को भर दिया है ।
टीका - इस अनादि संसार-चक्र में जीव नाना प्रकार के त्रस आदि गोत्रों और एकेन्द्रिय आदि जातियों में प्राप्त हुए हैं। इतना ही नहीं, अपितु एक-एक जीव ने ज्ञानावरणीय आदि नाना प्रकार के कर्मों के प्रभाव से जन्म-मरण के द्वारा इस सारे विश्व को भर रखा है। इसका अभिप्राय यह है कि इस असंख्यात योजन-प्रमाण लोक में ऐसा कोई भी आकाश-प्रदेश नहीं है जहां कि प्रत्येक जीव ने अनन्त बार जन्म और मरण को प्राप्त न किया हो, क्योंकि जब जीव अनादि है तब उपचार से जन्म-मरण भी अनादिकालीन मानना युक्तियुक्त है ।
इसके अतिरिक्त गाथा में जो 'गोत्र' और 'जाति' शब्दों का उल्लेख किया गया है उसके दोनों ही अर्थ होते हैं, आदि गोत्र और कश्यप आदि गोत्र एवं एकेन्द्रिय आदि जाति और क्षत्रिय आदि जातियां। इसके अतिरिक्त 'विस्सं' शब्द पर जो बिन्दु दिया गया है वह अलाक्षणिक है और 'प्रजाः' शब्द से प्राणी समूह का ग्रहण करना चाहिए ।
अब फिर इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं— एगया देवलोएसु, नरएसु
वि एगया
एगया आसुरं कायं, अहाकम्मेहिं गच्छइ ॥ ३ ॥
एकदा देवलोकेषु, नरकेष्वप्येकदा I
एकदाऽऽसुरं कायं, यथा कर्मभिर्गच्छति ॥ ३ ॥
पदार्थान्वयः—–—एगया—एक बार, देवलोएसु – देवलोकों में, एगया – एकदा, नरएसु-नरकों में, वि― भी, एगया— एकदा, आसुरं कायं - असुर-काय में, अहाकम्मेहिं—यथाकर्म — कर्मों के अनुसार, गच्छइ — जीव जाता है ।'
मूलार्थ - ये जीव अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार कभी देवलोकों में जाते हैं, कभी नरकों में और कभी असुर-समूहों में भी जाते हैं ।
टीका- अपने शुभ कर्मों के विपाक के अनुसार जीव कभी देवलोक में उत्पन्न होते हैं और अशुभ कर्मों के उदय से कभी रत्नप्रभा आदि नरकों की यातनाएं भोगते हैं तथा पूर्वजन्मार्जित कर्मों के प्रभाव से कभी असुर- कुमारों में जन्म लेते हैं । तात्पर्य यह है कि जिस-जिस प्रकार के कर्मों का जीव आचरण करते हैं उसी के विपाकोदय के अनुसार वैसी ही योनियों में उनका जन्म होता है ।
इस गाथा में कर्मों के फल का प्रदर्शन किया गया है। प्राणी जिस प्रकार के कर्म करते हैं, उन्हीं के अनुसार उनका फल भी वे भोगते हैं, परन्तु कर्म के करने अथवा भोगने के समय काल, स्वभाव, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 161 / तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं