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________________ श्रुति – पुण्यवशात् किसी प्रकार से मनुष्यत्व की प्राप्ति भी हो जाए, परन्तु उसमें फिर श्रुति-धर्म के श्रवण का संयोग मिलना तो और भी कठिन है, क्योंकि धर्म का श्रवण किए बिना कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का पूर्णतया बोध नहीं हो सकता, इसलिए श्रुति का प्राप्त होना मनुष्यत्व से भी अधिक दुर्लभ एवं आवश्यक है। श्रद्धा—कदाचित् श्रुति की प्राप्ति भी किसी पुण्य के विशेष उदय से हो जाए, परन्तु उसमें श्रद्ध का प्राप्त होना तो और भी कठिनतर है। बिना श्रद्धा के, बिना दृढतर विश्वास के सुना हुआ धर्मशास्त्र भी ऊसर भूमि में बोए हुए बीज की तरह निष्फलप्राय हो जाता है और हेयोपादेय के ज्ञान से भी श्रद्धा-शून्य हृदय खाली रह जाता है, इसलिए मनुष्यत्व और श्रुति के साथ श्रद्धा का होना बहुत ही आवश्यक है। संयम में पुरुषार्थ मानो कि मनुष्यत्व और श्रुति के साथ पुण्य-संयोग से श्रद्धा की प्राप्ति भी गई, परन्तु फिर भी धर्म-शास्त्रों की शिक्षा के अनुसार संयम में वीर्य अर्थात् पुरुषार्थ का होना और भी दुर्लभ है। इस सारे कथन का तात्पर्य यही है कि संसार-चक्र में भ्रमण करते हुए इस जीव को बड़े ही पुण्य के प्रभाव से उक्त चारों अंगों की प्राप्ति होती है, अतः मोक्ष के साधन-भूत इन चारों अंगों को प्राप्त करके मनुष्य को अपने अभीष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि इन चारों अंगों की प्राप्ति बार-बार नहीं होती। ये तो बहुत ही दुर्लभ हैं। इनका लाभ तो किसी निकटभवी भाग्यशाली पुरुष को ही उसके पुण्यानुबन्धी पुण्योदय से हो सकता है, साधारण व्यक्ति को नहीं । यद्यपि मनुष्य-भव, आर्य-क्षेत्र, आर्य-कुल, रूप, नीरोगता, दीर्घायु, बुद्धि, धर्म-श्रवण, अर्थग्राहकता, श्रद्ध तथा अभिरुचि और अशठता इत्यादि और भी साधन माने गए हैं, परन्तु इन सबका उक्त चारों ही अंगों में समावेश हो जाता है । यहां पर गाथा में 'अंग' शब्द के उल्लेख से शास्त्रकार का आशय यह बताने का है कि मोक्ष के लिए साक्षात् वा परम्परया उपयोगी ये चारों ही अंग धर्म के प्रधान कारण हैं और इनको जो दुर्लभ बताया गया है उसका तात्पर्य यही है कि हर एक को प्राप्त नहीं हो सकते तथा इन्हीं के द्वारा मोक्ष के प्रतिबन्धक घातिकर्मों का क्षय और क्षयोपशम किया जा सकता है। इसलिए इनकी दुर्लभता अनुभव-सिद्ध और युक्तियुक्त प्रतिपादित की गई है। अब सूत्रकार उन चारों अंगों का नाम निर्देश करते हुए उनमें से प्रथम मनुष्यत्व की दुर्लभता के विषय में कहते हैं, यथा समावन्ना ण संसारे, नाणा-गोत्तासु जाइसु । कम्मा नाणा-विहा कट्टु, पुढो विस्संभया या ॥ २ ॥ समापन्नाः खलु संसारे, नानागोत्राषु जातिषु 1 कर्माणि नानाविधानि कृत्वा, पृथग् विश्वभृतः प्रजाः ॥ २ ॥ श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 160 / तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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