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________________ अह तइअं चाउरंगिज्ज अन्झयणं अथ तृतीयं चतुरंगीयमध्ययनम् ___इस ग्रन्थ के द्वितीय अध्ययन में परीषहों का वर्णन और उनके सहन करने का उपदेश दिया गया है, इन परीषहों के सहन करने में मनुष्य ही समर्थ है, परन्तु मनुष्य को भी धर्म के प्रमुख चार अंगों की प्राप्ति का होना अति कठिन है, अतएव इस तीसरे अध्ययन में चार दुर्लभ अंगों का निरूपण किया जा रहा है। इन चारों अंगों के निरूपण के कारण इस अध्ययन को चतुरंगीय अध्ययन कहते हैं और उसकी आदिम गाथा इस प्रकार है चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ १ ॥ चत्वारि परमांगानि, दुर्लभानीह जन्तोः । मानुषत्वं श्रुतिः श्रद्धा, संयमे च वीर्यम् || १ || ___ पदार्थान्वयः–चत्तारि—चार, परमंगाणि—प्रधान अंग, दुल्लहाणि दुर्लभ हैं, इह—इस संसार में, जन्तुणो-जीव को, माणुसत्तं—मनुष्यत्व, सुई-श्रुति श्रवण, सद्धा-श्रद्धा, य—और, संजमम्मि–संयम में, वीरियं–वीर्य अर्थात् प्रयत्न । - मूलार्थ-संसार में इस जीव को—मनुष्यत्व, धर्म का श्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ इन चार अंगों की प्राप्ति का होना बहुत कठिन है। ___टीका—इस संसार-चक्र में भ्रमण करते हुए जीव को चारों अंगों का उत्तरोत्तर प्राप्त होना बहुत ही कठिन है, क्योंकि ये चारों ही अंग मोक्ष के साधनभूत होने से जीव के लिए बहुत ही उपकारी माने गए हैं। ये चारों अंग इस प्रकार हैं - मनुष्यता—यद्यपि इस अनादि संसार-चक्र में परिभ्रमण करते हुए इस जीव को अनेक बार मनुष्य जन्म की प्राप्ति हो चुकी है, परन्तु उसमें मनुष्यत्व का प्राप्त होना बहुत ही कठिन है, क्योंकि मनुष्यत्व उसे कहते हैं जिससे कि मनुष्योचित कर्त्तव्य-परायणता का बोध और आचरण हो। इसलिए इस मानवता का सब प्राणियों को प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है। - श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 159 | तइअं चाउरंगिज्जं अज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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