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प्रकार के कष्टों का सामना अवश्य करना ही पड़ेगा तथा अपनी संयममयी दृढ़-धारणा से इन पर विजय भी अवश्य प्राप्त करनी होगी, अन्यथा अभीष्ट की प्राप्ति दूर से भी दूर हो जाएगी। एतदर्थ ही भगवान् ने अपने ज्ञान के अनुसार इनका वर्णन और इनके साथ शांति-पूर्वक युद्ध करने तथा इनको पराजित करके आत्मविकास करने की आज्ञा दी है, इसलिए विवेकशील साधु को इन सभी परीषहों के स्वरूप का ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है, तभी वह परीषहों के आने पर अपने संयम को दृढ़ रखता हुआ अपनी सहनशीलता द्वारा उनको पराजित कर सकेगा।
इस अध्ययन में कुल ४६ गाथाएं हैं। उनमें से पहली गाथा के द्वारा परीषहों का बिभाग बताया गया है और अंतिम गाथा में उन्हीं का उपसंहार किया गया है। इस विषय के उपक्रम और उपसंहार दोनों में ही भगवान् महावीर स्वामी के नाम का उल्लेख है। इस कथन से इस सन्दर्भ की आप्त-प्रणीतता भली-भांति सिद्ध हो जाती है। शेष ४४ गाथाओं में परीषहों के स्वरूप का वर्णन है और प्रत्येक परीषह के वर्णन में दो-दो गाथाएं दी गई हैं। यह विषय कितना रोचक और ग्रहणीय है, इसके कथन करने की विशेष आवश्यकता नहीं। बुद्धिमान जिज्ञासु पुरुष इसका स्वयं ही अनुभव कर सकते हैं। परीषहों के सम्बन्ध में इतना और विचार कर लेना भी आवश्यक है कि मुनि के उद्देश्य से ही यद्यपि इनका उल्लेख किया गया है, तथापि गृहस्थ के लिए भी समय के अनुसार और अपने अधिकार के अनुसार इनका सहन करना परम आवश्यक है। यथा—अपनी स्त्री के अतिरिक्त अन्य स्त्री से समागम का परित्याग और स्व-स्त्री में भी तिथि-पर्व आदि के नियम का पालन करना एवं स्त्री की रुग्णावस्था में तथा गर्भवती होने पर ब्रह्मचर्य का पालन करना और कामचेष्टा के उत्पन्न होने पर . भी अपने ब्रह्मचर्य को दूषित न होने देना तथा अपनी स्वदार सन्तोषरूप प्रतिज्ञा में दृढ़ रहना और हृदय में दीप्त हुई कामाग्नि को शुद्ध विचारों के द्वारा शान्त करने का प्रयत्न करना, यह देशविरति श्रावक अर्थात् गृहस्थ का परीषह सहन करना है। इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार अन्यान्य परीषहों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए।
इसके अतिरिक्त इस सूत्र की दीपिका नाम की टीका में लिखा है कि
"इदं हि कर्मप्रवादनामाष्टमो हि पूर्वः, तस्य सप्तदश प्राभृतं, तस्योद्धारलेशं द्वितीयध्ययनमुत्तराध्ययनस्य" श्री उत्तराध्ययन सूत्र का यह दूसरा अध्ययन कर्मप्रवाद नामक आठवें पूर्व के सत्तरहवें प्राभृत का लेशमात्र उद्धार है। अतः यह अध्ययन प्रत्येक मुनि के लिए मनन करने योग्य है।
'त्ति बेमि' का अर्थ तो प्रथम अध्ययन की समाप्ति में लिख ही दिया गया है, उसी के अनुसार यहां पर भी समझ लेना चाहिए। यथा-श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे शिष्य! जैसे मैंने भगवान् से सुना है, वैसे ही मैं तेरे प्रति कथन करता हूं। इसमें मेरी अपनी बुद्धि की कोई कल्पना नहीं है।'
परीषह अध्ययन सम्पूर्ण
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 158 । दुइअं परीसहज्झयणं