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________________ सत्कार, और आक्रोश परीषह। दर्शन मोहनीय से—दर्शन, वेदनीय से—क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, मल, वध, रोग, और तृण-स्पर्श परीषहों की अनुभूति होती है। ___अन्त में इतना और भी याद रहे कि दर्शन-परीषह को भली-भांति सह लेने से प्रायः अन्य सभी परीषह सुगमता से सहन किए जा सकते हैं। इस बात को यदि सामान्य भाषा में कहें तो इस प्रकार कहा जा सकता है कि जिसको वीतरागदेव और उसके धर्म पर पूर्ण विश्वास है, श्रद्धा है, वह पुरुष अपने ऊपर आए हुए अनेकविध संकटों को भी भली-भांति सहन कर सकता है और उन आने वाले कष्टों को अपनी अपूर्व सहनशीलता से पराजित करता हुआ अपने अभीष्ट आत्मपदार्थ को शीघ्र से शीघ्र प्राप्त करने में सफल-मनोरथ हो सकता है। अब परीषहों का उपसंहार करते हुए सूत्रकार लिखते हैं एए परीसहा सव्वे, कासवेण पवेइया । जे भिक्खू न विहन्निज्जा, पुट्ठो केणइ कण्हुई ॥ ४६॥ त्ति बेमि | इति दुइ परीसहज्झयणं समत्तं ॥२॥ एते परीषहाः सर्वेः, काश्यपेन प्रवेदिताः । यान् भिक्षुर्न विहन्येत्, स्पृष्टः केनाऽपि कुत्रचित् ॥ ४६॥ • इति ब्रवीमि | द्वितीयं परीषहाध्ययनं समाप्तम् ॥ २ ॥ पदार्थान्वयः—एए—ये, परीसहा परीषह, सव्वे सब, कासवेण—काश्यप भगवान महावीर ने, पवेइया–प्रतिपादन किए हैं, जे–जिनको, भिक्खू–साधु (जान करके), न विहन्निज्जा—पतित न . हो, पुट्ठो-स्पर्शित हुए, केणइ–किसी प्रकार से, कण्हुई—किसी स्थान पर, त्ति—समाप्ति सूचक, बेमि—मैं कहता हूं। मूलार्थ ये सबं परीषह काश्यप गोत्रीय भगवान् महावीर ने प्रतिपादन किए हैं, जब किसी प्रकार से अथवा किसी भी स्थान पर इनका स्पर्श हो तब परीषहों के स्वरूप को जानकर साधु उन से कभी भी आत्मलक्ष्य से विचलित न हो। यह सब कुछ मैंने भगवान् के उपदेश के अनुसार कहा है, इसमें मेरी निजी बुद्धि की कोई कल्पना नहीं है। ____टीका-काश्यप गोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी ने इन परीषहों का वर्णन किया है, इनको भली-भांति जानकर संयमशील साधु किसी प्रकार से, किसी स्थान में इनका स्पर्श हो जाने पर अपने संयम-मार्ग से पतित न होने पाए, किन्तु अपनी संयम-सम्बन्धी दृढ़ता से इन पर विजय प्राप्त करे । इसी उद्देश्य से इनका उल्लेख विस्तार से किया गया है। किसी भी अभीष्ट की प्राप्ति कष्टों को झेले बिना नहीं हो सकती, इसलिए परमात्म-पद-प्राप्ति की अभिलाषा रखने वाले मुनिजनों को तो इन बाईस | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 157 । दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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