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________________ शास्त्रकार कहते हैं कि संयम-मार्ग का अनुसरण करने वाला मुनि इस प्रकार के विचारों को अपने हृदय में स्थान न दे, क्योंकि जिन अर्थात् केवली भगवान् का अस्तित्व अनुमानादि प्रमाणों से स्वतः-सिद्ध है, फिर इसमें आशंका का अवकाश नहीं है। परिणाम के तारतम्य की भांति ज्ञान की तारतम्यता को देखकर उसकी अन्तिम सीमा का अनुमान बड़ी सुगमता से किया जा सकता है, जैसे अणु-परिमाण की परम अवधि परमाणु है और महत्परिमाण की चरम सीमा आकाश है, इसी प्रकार ज्ञान-वृद्धि की चरम सीमा का कोई-न-कोई विश्राम-स्थान अवश्य मानना चाहिए। बस, जहां पर अथवा जिस आत्मा में ज्ञान-वृद्धि को निरतिशय स्थान प्राप्त हो गया है, वही आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और जिन अथवा तीर्थंकर के नाम से अभिहित है। ऐसी आत्माएं इस अवसर्पिणी-काल में यद्यपि अनन्तानन्त हो चुकी हैं, तथापि जिन आत्माओं ने इस निरतिशय ज्ञान केवल ज्ञान को प्राप्त करके संसार में धर्म का उपदेश दिया और धर्मरूप तीर्थ की स्थापना की, वे जिन भगवान तीर्थंकर श्री ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर स्वामी तक चौबीस हुए हैं, जिनका कि आरम्भ से लेकर अन्त तक एक ही प्रकार का उपदेश और आदेश है। इससे जिन-केवली जैसे अस्तित्व की सिद्धि निर्विवाद है। इस विषय में इतना और समझ लेना चाहिए कि जिस आत्मा का जितने परिमाण में कर्म-क्षय व क्षयोपशम होगा, उसको उतने ही अंश में देश-प्रत्यक्ष अथवा सर्व-प्रत्यक्ष की प्राप्ति होगी। अपने ज्ञान को अधिकाधिक निर्मल करना यह साधक के अपने वश की बात है। आत्मा स्वभाव से अनन्त दर्शन और अनन्त ज्ञान का भंडार है। उसकी यह दर्शन और ज्ञान की अनन्त शक्ति कर्म के प्रगाढ़ पटलों से आच्छादित हो रही है। उस आवरण-शक्ति को जितने-जितने अंश में दूर किया जाएगा उतने ही अंशों में आत्मा की ज्ञान-शक्ति का विकास होता जाएगा। जिस समय.उस पर से समस्त कर्मजन्य आवरण दूर हो जाएंगे, उस आत्मा की ज्ञान-शक्ति और दर्शन-शक्ति का पूर्ण विकास हो जाएगा, फिर संसार का ऐसा कोई भी पदार्थ न होगा जो कि उस निरावरण ज्ञान-शक्ति के समक्ष प्रत्यक्ष हुए बिना रह सके। बस, इसी का नाम सर्वज्ञता और सर्वदर्शिता है, जोकि निरावृत आत्मा की पूर्ण और स्वाभाविक ऋद्धि है, इसी ज्ञानऋद्धि को प्राप्त करने वाली आत्मा का नाम 'जिन' अथवा 'केवली' भगवान् हैं। इस गाथा में जैन-प्रवचन पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखने का उपदेश दिया गया है, क्योंकि जैनागमों को आप्त वचन कहा गया है। वीतरागदेव—जिनको दूसरे शब्दों में 'जिन' कहते हैं—के अतिरिक्त और कोई आप्त—यथार्थवक्ता नहीं हो सकता, इसलिए इस पूर्वापर में अविरोध रखने वाली आप्त वाणी पर कभी अविश्वास नहीं करना चाहिए। जो लोग केवली और उनकी वाणी पर विश्वास नहीं करते, वे लोग वास्तव में सत्य की अवहेलना करते हैं, अतः सर्वज्ञ-भाषित धर्म पर आरूढ़ होने वाले मुनि को जिन भगवान् के अस्तित्व में और उनकी वाणी की यथार्थता में कभी सन्देह नहीं करना चाहिए, इसी में उसकी दर्शनशुद्धि और साधुता की प्रतिष्ठा है। यहां पर इतना और स्मरण रखना चाहिए कि ये परीषह प्रत्येक कर्म के उदय से नहीं आते, किन्तु ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मों में इन बाइस परीषहों के उदय का समावेश हो जाता है, यथा—ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान-परीषह का उदय होता है तथा अन्तराय कर्ग से अलाभ। चारित्र-मोहनीय कर्म से—अरति, अचेल, स्त्री, नैषेधिकी, याचना, श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 156 / दुइअं परीसहज्झयणं .
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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