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________________ अथवा विगुणता से अगर किसी पुरुष को किसी विषय में कम सफलता प्राप्त होती है तो उसका यह अर्थ कदापि न समझना चाहिए कि सफलता असम्भव है। आज भी महाविदेह क्षेत्र में पूर्ण सिद्धि, रखने वाले महापुरुष विद्यमान हैं। तात्पर्य यह है कि वस्तु की सत्ता का होना अलग बात है और उसका सम्पूर्ण अथवा न्यूनाधिक रूप से प्राप्त करना या न करना अलग बात है, अतः परलोक की भान्ति सिद्धियों के विषय में भी यत्नशील साधु को अटल विश्वास रखना चाहिए। अब रही वंचना या ठगने की बात, सो यह कथन सर्वथा निर्बल आत्माओं का है, बलवान आत्माएं तो इसका स्वप्न में भी संकल्प नहीं करतीं। विषय-जन्य क्षणिक सुखों को चाहना और उनके परिणाम को न देखते हुए उनके लिए ललचाना, संयमशील व्यक्ति की इससे अधिक और क्या गिरावट हो सकती है? जिन त्यागशील व्यक्तियों ने विषय-भोगों के परिणाम की ओर दृष्टि दी है और जिन्होंने इनके दुखद परिणामों का अनुभव किया है वे तो इनकी तुच्छता की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखते। इसलिए सभी आस्तिकों ने विषय-जन्य सुख को केवल दुखरूप बताते हुए त्यागी व्यक्तियों को उससे सदा दूर रहने का ही अमृत उपदेश दिया । है। इसलिए वीतराग देव के पवित्र धर्म का अनुसरण करने वाले मुनि को दर्शन-शुद्धि के विषय में किसी प्रकार भी शंका न रखनी चाहिए, किन्तु ज्ञान-पूर्वक तपश्चर्या के सम्यग् अनुष्ठान से आवरणभूत कर्म-पटल का क्षय करके आत्म-दर्शन की ओर बढ़ना चाहिए, जिससे कि उक्त सारी-की-सारी शक्तियां उसमें प्रादुर्भूत होकर अपने तेजपुञ्ज से उसे मालामाल कर दें। - अब फिर उक्त विषय का ही स्पष्टीकरण करते हैं - अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवावि भविस्सई । मुसं ते एवमाहंसु, इइ भिक्खू न चिंतए ॥ ४५ ॥ - अभूवन् जिनाः सन्ति जिनाः, अथवाऽपि भविष्यन्ति | मृषा ते एवमाहुः, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् ॥ ४५ ॥ पदार्थान्वयः-जिणा—जिन भगवान्, अभू–हुए, जिणा अत्थि—जिन भगवान् हैं, अदुवा—अथवा, वि—इसी प्रकार, भविस्सई—होंगे, ते—जो, एवं—इस प्रकार, आहंसुकहते हैं, मुसं—वे झूठ बोलते हैं, इइ–इस प्रकार का, भिक्खू–साधु, न चिन्तए—विचार न करे । मूलार्थ जो लोग यह कहते हैं कि 'जिन हुए, जिन हैं और जिन होंगे, वे झूठ बोलते हैं इस प्रकार का मुनि कभी चिन्तन न करे। टीकारागादि अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाली वीर आत्मा को 'जिन'कहते हैं और उन्हीं के—अर्हन्, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीर्थंकर आदि दूसरे नाम हैं। ऐसे जिन पूर्वकाल में हुए और वर्तमान काल में महाविदेह आदि क्षेत्रों में विद्यमान हैं तथा भविष्य में भी होंगे। जो लोग इस प्रकार से जिनों अर्थात् तीर्थंकरों के अस्तित्व को मानते हैं वे झूठ बोलते हैं, वास्तव में उनका अस्तित्व ही नहीं है। | श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 155 । दुइअं परीसहज्झयणं ।
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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