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________________ अनुभव, जैसे अपने से मकान और घर को स्पष्ट रूप से अलग बता रहा है, इसी प्रकार से 'मेरा हाथ', मेरा पांव इत्यादि रूपों में हाथ और पांव को अपने से अलग करने वाली प्रतीति कदापि नहीं होनी चाहिए, परन्तु ऐसी प्रतीति होती है। इससे विदित होता है कि जैसे घर का मालिक घर नहीं हो सकता, उसी प्रकार शरीर का अधिष्ठाता भी शरीर नहीं बन सकता । इसके अतिरिक्त इच्छा, प्रयत्न, ज्ञान और सुख-दुख के अनुभव को यदि शरीर का ही धर्म मान लिया जाए तो मृतक शरीर में भी उक्त सभी बातें दृष्टिगोचर होनी चाहिएं, परन्तु होती नहीं । इससे सिद्ध होता है कि सुख-दुख का अनुभव करने वाली कोई चेतना - शक्ति है जो कि शरीर में रहती हुई भी उससे सर्वथा स्वतन्त्र एवं भिन्न है । शरीर में जो भी क्रियाएं होती हैं, जो भी प्रयत्न देख जाता है, वह सब कुछ उसी चेतना - शक्ति की सत्ता और स्वतन्त्रता पर अवलम्बित है। इसके अतिरिक्त अनेक तार्किक लोग यह भी कहा करते हैं कि शरीर में उपलब्ध होने वाली चेतनता कोई अलग पदार्थ नहीं है, किन्तु पृथ्वी आदि पांच भूतों के मेल से उत्पन्न होने वाली उन्हीं स्वरूपभूत एक शक्ति विशेष है । परन्तु उन महानुभावों को इस बात का भी विचार कर लेना चाहिए कि असत् से सत् की उत्पत्ति कभी नहीं होती और जो शक्ति प्रत्येक में नहीं वह समुदाय में कहां से आएगी? अगर चेतनाशक्ति को जड़ भूतों का ही एक परिणाम- विशेष मान लिया जाए तो पृथ्वी आदि प्रत्येक भूत से उसकी उपलब्धि अवश्य होनी चाहिए, परन्तु होती नहीं । इससे सिद्ध हुआ कि चेतना - शक्ति भूतों का परिणाम नहीं, किन्तु स्वतन्त्र और सदा के लिए अपना अस्तित्व रखने वाला एक अलग पदार्थ है जो कि इस जड़ शरीर की उत्पत्ति से पहले भी विद्यमान था और उसके विनाश के बाद भी विद्यमान रहेगा और तब तक इस भौतिक शरीर के साथ बराबर सम्बन्ध रखेगा, जब तक कि वह अपने कर्म-जन्य आवरणों को दूर करके केवलज्ञान के द्वारा सिद्ध-गति को प्राप्त न हो जाए । इस सारे विचार से यह सिद्ध हुआ कि आत्मा है और वह नित्य है । इस शरीर से सम्बन्ध और कर्म के प्रभाव से जन्म-मरण की परम्परा का अनुभव करने वाला है, तथा पुण्यकर्म के अनुष्ठान से वह स्वर्गादि पुण्य-लोकों को प्राप्त करता है । पाप कर्म के आचरण से उसे नरकादि जघन्य लोकों की प्राप्ति होती है और मिश्रित कर्मों के अनुष्ठान से इस मनुष्य-लोक में कर्म के विपाक के अनुसार मनुष्यादि योनि को धारण करता है तथा कर्मों का साधना के द्वारा क्षय करके केवल - ज्ञान प्राप्त करता हुआ वह मोक्ष -मन्दिर में भी पहुंच जाता है, जहां पर कि वह अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान और अनन्त वीर्य वाला होता हुआ फिर इस संसार में कभी नहीं आता । यही परम सत्य है, यही परम सिद्धान्त है । इस समस्त कथन से परलोक का अस्तित्व तो सिद्ध हो चुका। अब सिद्धियों के विषय पर भी कुछ विचार कर लेना चाहिए । यद्यपि सम्पूर्ण रूप से सिद्धियों को प्राप्त किए हुए पुरुषों की आज उपलब्धि नहीं होती, (इसमें समय का ही अधिक प्रभाव समझना चाहिए) तथापि थोड़ी बहुत सिद्धियां रखने वाले तो आज भी कहीं-कहीं पर अवश्य उपलब्ध होते हैं। इससे यह अनुमान करना सहज है। कि अतीत काल में सम्पूर्ण सिद्धियों वाले महापुरुष भी होंगे और थे। विधि और प्रयत्न की न्यूनता श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 154 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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