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________________ अवनति के गढ़े में गिराने वाले हैं और आस्तिकता के देदीप्यमान सिंहासन पर से उतारकर नास्तिकता की गहरी खाई में फैंकने वाले हैं। वस्तुतः उक्त प्रकार के विचार मनुष्य को आध्यात्मिकता से पराङ्मुख करके केवल उस भौतिकता की तरफ धकेलने वाले हैं, जिसमें कि निविड़ अन्धकार के सिवाय प्रकाश का नामोनिशान भी नहीं है, इसलिए दर्शन-परीषह पर विजय प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला साधक इस प्रकार के विचारों को अपने पास कभी भी न आने दे। इसी में उसके सम्यक्त्व की उज्ज्वलता और रमणीयता है और सम्यक्त्व ही मुनिजीवन का सबसे अनूठा भूषण है। __अब यहां पर परलोक आदि की सिद्धि के विषय में कुछ थोड़ा सा लिखा जाता है, जोकि आस्तिकवाद का प्रमाण है। परलोक, जन्मान्तरवाद, पुनर्जन्म और पुण्य-पाप की सिद्धि आत्मा के अस्तित्व पर ही अवलम्बित है। यदि शरीर के अतिरिक्त आत्मा का स्वतन्त्ररूप से अस्तित्व प्रमाणित हो जाए तो परलोक और पुण्य-पाप की सिद्धि स्वतः ही हो जाती है, इसलिए सर्व प्रथम आत्मा के अस्तित्व पर विचार करना चाहिए। संसार में मुख्य रूप से केवल दो ही तरह के पदार्थ देखे जाते हैं, एक वे जिनमें स्वतंत्र रूप से किसी प्रकार की क्रियाशक्ति या प्रयत्न नहीं देखा जाता और न ही वे अपने अन्दर किसी प्रकार का विशिष्ट ज्ञान ही रखते हैं। इसके विपरीत दूसरे प्रकार के वे पदार्थ हैं जिनमें स्वतन्त्र प्रयत्न, ज्ञान और सुख-दुख के अनुभव करने की शक्ति विद्यमान है। इनमें पहले प्रकार के पदार्थों को जड़ और दूसरे प्रकार के पदार्थों को चेतन कहा जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि संसार में जड़ और चेतन ये दो ही मुख्य पदार्थ हैं। ये दोनों ही अपने-अपने स्वाभाविक गुण-धर्मों की अपेक्षा एक दूसरे से भिन्न और स्वतन्त्र हैं। जड़ के गुण-धर्म उससे चेतन को और चेतन के गुण-धर्म उससे जड़ को पृथक् कर रहे हैं। इतने कथन से जड़ और चेतन इन दो पदार्थों का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। अब देखना यह है कि जो आत्मा चेतन और शरीर का अधिष्ठाता माना जाता है, उसके विषय में हमारा अबाधित अनुभव क्या है? 'मैं हूं' यह अनुभव प्रत्येक मनुष्य को होता है। इस अनुभव के लिए किसी प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं है। इससे 'मैं' शब्द बोधित आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि तो असंदिग्ध है। - अनेक तार्किकों का यह कथन है कि 'मैं' शब्द से इस दृश्यमान शरीर का ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि 'मैं सुखी हूं' 'मैं दुखी हूं', 'मैं चलता हूं' 'मैं देखता हूं', इत्यादि प्रकार के सारे ही अनुभव शरीर को ही विषय करते हैं, इसलिए 'मैं' शब्दवाच्य आत्मा इस शरीर से पृथक् नहीं, यदि होता तो कभी उसकी उपलब्धि भी अवश्य होती। परन्तु यह कथन सर्वथा भ्रांतिमूलक है, यदि इस शरीर को ही आत्मा मान लिया जाए तो शरीर के कई एक अवयवों के कट जाने पर भी इस 'मैं' की अनुभूति बराबर बनी रहती है, अर्थात् मैं हूं यह अनुभूति बराबर होती रहती है, वह कदापि न होनी चाहिए। तथा 'मैं सुखी हूं', 'मैं दुखी हूं' इस प्रकार का जो अभेद ज्ञान है वह भी भ्रांतिमूलक है, अन्यथा 'मेरा मकान', 'मेरा घर' इत्यादि प्रकार का श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् | 153 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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