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________________ में दृढ़ रहते हुए इस अज्ञान - परीषह को पराजित करने का ही विशेष प्रयत्न करना चाहिए । इस प्रकार के आचरण का किसी समय भावी परिणाम यह होगा कि उसकी अज्ञानता नष्ट हो जाएगी और ज्ञान-ज्योति का उसके हृदय में प्रकाश होगा तथा उसकी उक्त दुराशाएं आशा की ज्योति के रूप में परिणत होकर उसके वास्तविक सुख की प्राप्ति में उसकी सहायक बनेंगी, परन्तु यह सब कुछ उसकी सहनशीलता और दृढ़ निश्चय पर ही निर्भर है । (२२) दर्शन-परीषह अब बाईसवें दर्शन नाम के परीषह का वर्णन किया जाता है— नत्थि नूणं परे लोए, इड्ढी वावि तवसिणो । अदुवा वंचिओ मित्ति, इइ भिक्खू न चिंतए ॥ ४४ ॥ नास्ति नूनं परो लोकः, ऋद्धिर्वापि तपस्विनः । अथवा वञ्चितोऽस्मि, इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् ॥ ४४ ॥ पदार्थान्वयः—नूणं—–निश्चय ही, परे लोए - परलोक, नत्थि — नहीं है, वि - पादपूर्ति में, वाअथवा, इड्डी—ऋद्धि की प्राप्ति, तबस्सिो – तपस्वी को (नहीं है), अदुवा – अथवा, वंचिओ मि छला गया हूं, त्ति—समुच्चयार्थ में, इइ – इस प्रकार का, भिक्खू – साधु, न चिंतए – चिन्तन न करे। मूलार्थ - निश्चय ही परलोक नहीं है और न ही तपस्वी को किसी प्रकार की ऋद्धि की प्राप्ति हो सकती है, मैं तो छला गया हूं, इस प्रकार का चिन्तन साधु कभी न करे । टीका - इस गाथा में दर्शन नामक परीषह का वर्णन किया गया है, तत्त्वार्थ श्रद्धान अथवा आस्तिक्य-बुद्धि का नाम दर्शन है, इससे विपरीत विचार रखने वाले व्यक्ति को दर्शन - परीषह की उपस्थिति होती है। वास्तव में पर-लोक कोई वस्तु नहीं है और न ही उसकी कोई वास्तविक सत्ता है, पर - लोक की कल्पना एक युक्तिशून्य कल्पना है, इसलिए उसको स्वीकार करना केवल भ्रम और प्रमादमात्र है। जो लोग यह कहते हैं कि तपस्वियों को जंघाचारणादि लब्धियां प्राप्त हो जाती हैं यह भी उनका मिथ्या प्रलाप है एवं तपस्वी मुनियों में जो रोगनाशक शक्तियों के उत्पन्न होने का विश्वास दिलाया जाता है, वह भी एक प्रकार का दम्भमात्र ही है । तात्पर्य यह कि ये सब कथन स्वप्नों में देखे प्रपंच की तरह मिथ्या हैं, इनमें सत्यता कुछ नहीं । परलोक तो दृष्टिगोचर है ही नहीं, इसके अतिरिक्त मैंने अनेक तपस्वियों को देखा है, मैं उनकी घोरतर तपश्चर्याओं से परिचय प्राप्त कर चुका हूं, परन्तु उनके पास न तो कोई लब्धि ही देखी है और न ही उनके पास कोई रोगनाशक चमत्कार ही देखने में आया है। इससे सिद्ध हुआ कि यह सब कुछ कथनमात्र ही है । मैं तो सचमुच ही छला गया हूं और व्यर्थ ही इस त्यागवृत्ति वाले मुनिवेश को धारण करके केश - लुंचन आदि के द्वारा इस शरीर को घोर कष्ट पहुंचाने का प्रयास किया है। इस प्रकार के विचारों को संयमशील और प्रज्ञावान् मुनि कभी भी अपने हृदय में आने देने का विगर्हित प्रयत्न न करे, क्योंकि इस प्रकार के विचार आत्मा को उन्नति-मार्ग से गिराकर श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 152 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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