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________________ इसलिए अपनी अज्ञानता को अपने पूर्व कर्मों का विपाक समझकर साधु को इस प्रकार की हीन भावनाओं का चिन्तब कभी नहीं करना चाहिए । अब फिर इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हैं तवोवहाणमादाय, पडिमं पडिवज्जओ । . एवंपि विहरओ मे, छउमं न नियट्टई ॥ ४३ ॥ तप उपधानमादाय, प्रतिमां प्रतिपद्यमानस्य । एवमपि विहरतो मे, छद्म न निवर्तते || ४३ ॥ पदार्थान्वयः–तव-तप, उवहाणं—उपधान तप, आदाय—ग्रहण करके, पडिमं—साधु की प्रतिमा को, पडिवज्जओ ग्रहण करके, एवंषि—इस प्रकार से भी, विहरओ विचरने से, मे मेरा, छउमं—छद्मस्थभाव, न नियट्टई—निवृत्त नहीं हुआ। मूलार्थ तपः कर्म और उपधान तप के अनुष्ठान से तथा भिक्षु की प्रतिमा को धारण करने से भी मेरा छद्मस्थ भाव अर्थात् अज्ञानता दूर नहीं हुई। ___टीका—इस गाथा का भी पहली गाथा के साथ ही सम्बन्ध है। अज्ञान-परीषह के वशीभूत होकर साधु इस प्रकार का कभी चिन्तन न करे कि मैंने भद्र-प्रतिमा, महाभद्र-प्रतिमा तथा द्वादशभेदी तप का भी अनुष्ठान किया और सूत्रोक्त-विधि के अनुसार आचम्लादि तप की भी सम्यग् आराधना की, साथ में साधु की द्वादशविध प्रतिमाओं को भी यथाविधि धारण किया और आज तक देश-विदेश में अप्रतिबद्ध विहार का भी आचरण किया, परन्तु इतने पर भी मेरी अज्ञानता दूर नहीं हुई। इससे विदित होता है कि इस प्रकार की सारी की सारी क्रियाएं ज्ञान-प्राप्ति में किसी भी प्रकार से उपयोगी नहीं हैं, अर्थात् इनसे ज्ञान की प्राप्ति अथवा और किसी प्रकार की लौकिक सिद्धि की आशा करना सर्वथा व्यर्थ है। यदि इस प्रकार की विकट तपश्चर्या से मेरा कोई भी अतिशय बढ़ जाता अथवा मुझे किसी भी न्यूनाधिक सिद्धि की प्राप्ति हो जाती, तब तो मुझे इस पर कुछ-न-कुछ विश्वास करने का अवसर अवश्य प्राप्त हो जाता, परन्तु मैं तो इतने समय की घोर तपश्चर्या के बाद भी वैसे का वैसा ही रहा। इससे प्रतीत होता है कि यह सब कुछ कथनमात्र है, इसमें सत्यता का कोई अंश नहीं है। इत्यादि। वास्तव में साधु की यह धारणा, उसका यह विचार केवल अज्ञान-परीषह के वशीभूत होने का ही एक फल विशेष है, क्योंकि किसी प्रकार की लौकिक या अलौकिक सिद्धि अथवा विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति का होना कर्मों के क्षय अथवा क्षयोपशम पर निर्भर है। जब तक आवरणरूप कर्मों का क्षय अथवा क्षयोपशम नहीं होता, तब तक विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति अथवा किसी सिद्धि विशेष की प्राप्ति का होना असम्भव ही है, इसलिए साधु को अपने पूर्व-जन्मार्जित कर्मों के विपाक का विचार करते हुए अपनी अज्ञानता और साधु-वृत्ति के अनुसार किए जाने वाले तपोऽनुष्ठान के विषय में किसी प्रकार का खेद प्रकट नहीं करना चाहिए, अपितु अपने चित्त को शान्त और स्वस्थ रखकर अपनी साधु-चर्या श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 151 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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