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रखना चाहिए और उसकी भिक्षावृत्ति भी अपनी जाति और परिचित लोगों को छोड़कर अन्य समुदायों में होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त वह रस-गृद्धि अर्थात् रसासक्ति का भी सर्वथा त्यागी हो। भोजन-सम्बन्धी सुन्दर और रसयुक्त पदार्थों का वह अभिलाषी न हो। इतने ऊंचे त्याग वाले बुद्धिमान् साधु को किसी व्यक्ति के विशेष प्रकार के मान-सत्कार को देखकर उस सत्कार की तनिक भी मन में अभिलाषा नहीं लानी चाहिए। ___ यह बात यद्यपि सत्य है कि बड़े-बड़े त्यागी और संयमी पुरुषों को भी कभी-कभी मान-सत्कार की भूख सताने लग जाती है, वे सम्मान-सत्कार के समक्ष सभी पदार्थों को तुच्छ समझने लगते हैं। यद्यपि उनका उन्होंने त्याग कर रखा होता है, फिर भी मान-बड़ाई का मन से त्याग करना उनके लिए कठिन हो जाता है। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि त्याग-प्रधान धर्म के अनुयायी भिक्षु को अन्य कषायों के त्याग की भांति मान-कषाय का भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। इससे बढ़कर मुनि-जीवन में और कोई दुर्बलता नहीं कि किसी के सम्मान-सत्कार को देखकर उसकी ओर ललचाना
और मन में यह निर्बल विचार पैदा करना कि यदि मैं इस सत्कार-प्राप्त साधु के धर्म में दीक्षित हुआ होता तो मुझे भी आज इन लोगों से इसी प्रकार का आदर-मान प्राप्त होता।
यहां पर गाथा में साधु के लिए प्रज्ञावान और अल्प-कषायी ये दो विशेषण दिए गए हैं, जिनका अर्थ बुद्धिमान्, विवेकशील और न्यून कषायों वाला है। इसका तात्पर्य भी वही है जिसका कि ऊपर वर्णन किया गया है, अर्थात् जो विवेकशील और स्वल्प-कषाय वाला होगा, वह कभी भी किसी के द्वारा सत्कार-पुरस्कार की इच्छा नहीं करेगा तथा दूसरों के सत्कार को देखकर भी उसका विवेकशील मन उनकी ओर कभी नहीं ललंचाएगा। इसलिए संसार के झूठे मान-सत्कार से अपने आपको अलग रखना ही सच्ची साधुता है, यही वीतरागदेव के धर्म-मार्ग पर चलने वाले मुनि का सच्चा आदर्श है।
यहां पर इतना और समझ लेना चाहिए कि ऊपर जो कुछ भी मान-सत्कार के विषय में कहा गया है, वह सब कुछ अन्वयरूप से कहा गया है और इसका व्यतिरेक रूप से अभिप्राय यह है कि मुनि का यदि कोई राजा-महाराजा आदि प्रतिष्ठित व्यक्ति भी आदर-सत्कार करे तो साधु को अपने मन में किसी प्रकार का अहंकार या आनन्द नहीं मनाना चाहिए, न मिलने पर उसकी आशा भी नहीं करनी चाहिए।
- (२०) प्रज्ञा-परीषह । ___ बुद्धिमान् पुरुष का सत्कार तो प्रायः होता ही है, परन्तु प्रज्ञा-विकल साधु भी किसी प्रकार की चिन्ता न करे, इसके लिए अब बीसवें प्रज्ञा-परीषह का वर्णन किया जाता है
से नूणं मए पुव्वं, कम्माऽणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि, पुट्ठो केणइ कण्हुई ॥ ४०॥ स नूनं मया पूर्वं, कर्माण्यज्ञानफलानि कृतानि । येनाहं नाभिजानामि, पृष्टः केनचित् क्वचित् ॥ ४० ॥
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 147 । दुइअं परीसहज्झयणं