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________________ टीका - इस गाथा में साधु के लिए सभी प्रकार के पूजा - सत्कार की अभिलाषा न करने का आदेश दिया गया है। संसार में साधु कहलाने वाले ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जिनका राजा-महाराजा आदि अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति उनकी योग्यता से बढ़कर सत्कार करते हैं, उनको अपने घरों में बुलाते हैं, आने पर उनका अभ्युत्थान द्वारा स्वागत करते हैं तथा द्रव्यादि से भी उनकी सेवा सुश्रूषा करने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखते। उन व्यक्तियों की ऐसी प्रतिष्ठा को देखकर वीतरागदेव के मार्ग के अनुयायी साधु को उस स्वागत सत्कार की ओर कभी ललचाना न चाहिए, अर्थात् संसार में मेरा भी इसी प्रकार का सत्कार होना चाहिए, मुझे भी इसी प्रकार लोग मानें, इत्यादि विचारों को संयमशील साधु कभी भी अपने अन्तःकरण में स्थान न दे। मुनि का धर्म तो सर्व प्रकार की लौकिक वासनाओं से सर्वथा मुक्त होना हैं और जो इस प्रकार के सत्कार की इच्छा के जाल में फंसा हुआ है, वह वास्तव में मुनि ही नहीं है। मुनि लोग तो एकान्त सेवी और आत्मापेक्षी होते हैं । उनको जो वन्दन - नमस्कार करता है, वह तो अपने कर्मों की निर्जरा अवश्य करता है, परन्तु सच्चे मुनिजन बड़े लोगों द्वारा होने वाले सत्कार की कभी इच्छा नहीं रखते। यहां इतना और भी स्मरण रहे कि जो व्यक्ति संसार में स्व-वृत्ति प्रतिकूल होकर पूजा जाता है, उसका किसी समय अपमान भी अवश्यंभावी होता है, इसलिए वीतरागदेव के धर्म में दीक्षित होने वाले मुनि का यह धर्म है कि वह किसी के द्वारा पूजा -सत्कार की कभी इच्छा न करे, क्योंकि इससे उसकी आत्मा का अधःपतन ही होता है, उन्नति कदापि नहीं होती । अब पुनः इसी विषय की चर्चा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं—अणुक्कसाई अप्पिच्छे अन्नाएसी अलोलुए । रसेसु नाणुगिज्झेज्जा, नाणुतप्पेज्ज पन्नवं ॥ ३६ ॥ अणुकषायी अल्पेच्छः, अज्ञातैषी अलोलुपः । रसेषु नानुगृध्येत्, नानुतप्येत प्रज्ञावान् || ३६ || पदार्थान्वयः - अणुक्कसाई – अल्प कषायों वाला, अप्पिच्छे - अल्प इच्छा वाला, अन्नाएसीअज्ञात कुलों में से भिक्षा ग्रहण करने वाला, अलोलुए - लोलुपता से रहित, रसेसु — रसों में, नाणुगिज्झेज्जा — आसक्ति न करे, पन्नवं - प्रज्ञावान् साधक, नाणुतप्पेज्ज - अनुताप न करे । मूलार्थ—–अल्प कषायों वाला, अल्प इच्छा वाला, लोलुपता से रहित और अज्ञात कुलों में भिक्षा ग्रहण करने वाला बुद्धिमान् साधु न तो कभी रसों में मूर्च्छित हो– आसक्त हो और न ही उनको पाने कभी आशा करे । टीका - वीतरागदेव के धर्म पर चलने वाले साधु का धर्म है कि सबसे पहले वह स्वल्पकषायी हो, अर्थात् उसमें क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय बहुत ही न्यून परिमाण में हों तथा उसकी इच्छाएं बहुत ही स्वल्प हों । उसको अपने धर्मोपकरणों में भी किसी प्रकार का ममत्व नहीं श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 146 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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