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रहा है, भूख और प्यास से व्याकुल हैं तथा रज और मल से अवगुंठित हैं, वे महात्मा जन सम्यक्-ज्ञान के न होने से अकाम निर्जरा तो करते हैं, परन्तु मोक्ष के लिए उनको किसी गुण-विशेष की प्राप्ति नहीं होती तथा जो समदर्शी साधु उक्त प्रकार के परीषहों को ज्ञान-पूर्वक सहन करते हुए अपने शरीर की वैसी दशा बना लेते हैं, वे महाकर्मों की निर्जरा करके निःसन्देह सम्यक् ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं जो कि साक्षात् या परम्परया मोक्ष का साधन है। इसलिए ऐसे समय पर साधु शरीर सम्बन्धी मल को धोने की अभिलाषा न करे और न ही मल आदि को दूर करने का प्रयत्न करे। यह शरीर तो हजार बार धोने पर भी शुद्ध नहीं हो सकता। इसके नव द्वार तो सदा चलते ही रहते हैं, किन्तु इस पर से ममत्व को हटाकर केवल आत्म-चिन्तन में ही मग्न रहने का प्रयत्न करे, इसी में उसका सर्वतोमुखी कल्याण निहित है।
यहां पर यह भी अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि यह सब कुछ उत्सर्ग-मार्ग में विधान किया गया है। अपवाद-मार्ग में तो स्थविरादि के लिए जैसा शास्त्रकारों ने आदेश दिया है उसके अनुसार आचरण करे, उसके विरुद्ध आचरण करने का कभी साहस न करे। जैसे कि निशीथ सूत्र में कहा गया है कि
नीरोगी-रोग-रहित साधु यदि औषध का सेवन करे तो उसको प्रायश्चित करना पड़ता है। इससे सिद्ध हुआ कि रोग-युक्त साधु आवश्यकता पड़ने पर औषधि ले सकता है, इसमें उसको कोई दोष नहीं लगता। इसी प्रकार सब जगह पर जान लेना चाहिए।
(१६) सत्कार-परीषह मल-युक्त साधु यदि किसी अन्य शुद्धिधर्म वाले साधु का सत्कार होते देखकर मन में यह इच्छा करे कि इसी प्रकार से मेरा सत्कार भी होना चाहिए, ऐसी दशा में मुनि को सत्कार-पुरस्कार परीषह उत्पन्न हो जाता है, इसलिए अब उन्नीसवें सत्कार-परीषह का वर्णन करते हैं
अभिवायणमब्भुट्ठाणं, सामी कुज्जा निमंतणं । जे ताइं पडिसेवन्ति, न तेसिं पीहए मुणी ॥ ३८ ॥
अभिवादनमभ्युत्थानं, स्वामी कुर्यान्निमन्त्रणम् ।
ये तानि प्रतिसेवन्ते, न तेभ्यः स्पृहयेन्मुनिः ॥ ३८॥ पदार्थान्वयः—अभिवायणं—अभिवादन, अब्भुट्ठाणं सम्मुख उठना, सामी—राजा आदि, निमंतणं निमन्त्रण, कुज्जा—करे, जे–जो, ताई—उनको, पडिसेवंति–सेवन करते हैं, तेसिं—उनकी इस महिमा को, मुणी–साधु, न पीहए—प्राप्त करने की इच्छा न करे।
मूलार्थ किसी अन्य मतानुयायी साधु का राजा आदि प्रतिष्ठित व्यक्तियों के द्वारा अभिवादन, नमस्कार, अभ्युत्थान होने पर—सामने उठकर खड़े होने पर, निमन्त्रण-भोजन आदि के लिए घर में बुलाने पर और अन्य सेवा-सुश्रूषा आदि रूप प्रतिष्ठा को देखकर संयम-शील साधु उसकी कभी स्पर्धा न करे, अर्थात् इस प्रकार के सत्कार को पाने की कभी इच्छा न करे।
. श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 145 । दुइअं परीसहज्झयणं