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________________ विचारशील साधु को चाहिए कि वह शरीर के ऊपर की मल-शुद्धि का अथवा मल के जमने पर होने वाले सहज कष्ट का मन में जरा भी विचार न करे और न उसके त्याग से किसी प्रकार के क्षणिक सुख - विशेष की इच्छा करे । इससे यह बात भली भांति सिद्ध होती है कि जिन मुनियों ने संसार से अपना सम्बन्ध सर्वथा तोड़ लिया है और गृहस्थों के भी संसर्ग में जो नहीं आते तथा जिनको जन्म-मरण का भी भय नहीं रहा, वे मुनिजन भयंकर से भयंकर परीषह के उपस्थित होने पर भी अपने निश्चय से कभी विचलित नहीं होते। उनका मन सुमेरु की तरह सदा अटल रहता है, उनकी इस अखण्ड दृढ़ता के प्रताप लौकिक सिद्धियां उनके सामने हाथ जोड़े उपस्थित रहती हैं। जिनका मन अभी चंचल है और जो परीषहों के भय के कारण भयभीत हो जाते हैं तथा जिनमें आत्म-विश्वास की अपूर्णता है, वे ज्ञान और उसके फल से सदा ही वंचित रह जाते हैं । सारांश यह है कि गर्मी के अधिक परिताप से शरीर में कितना भी ताप - जन्य कष्ट बढ़ जाए तो भी संयमशील साधु अपनी साधु-धारणा से चलायमान न 1 शरीर के मल-युक्त हो जाने के पश्चात् साधु का जो कर्त्तव्य है, अब उसके विषय में कुछ उल्लेख किया जाता है— वेएज्ज निज्जरापेही, आरियं धम्मऽणुत्तरं । जाव सरीरभेओत्ति, जल्लं कारण धारए ॥ ३७ ॥ वेदयेन्निर्जराप्रेक्षी आर्यं धर्ममनुत्तरम् I यावच्छरीरभेद इति, जल्लं कायेन धारयेत् || ३७ || पदार्थान्वयः - वेज्ज — सहन करे, निज्जरापेही निर्जरा को देखने वाला, आरियं धम्मं - आर्य-धर्म, अणुत्तरं — प्रधान है, जाव – जब तक, सरीरभेओ—– शरीर का भेद होता हो, त्ति - इस प्रकार तब तक, जल्लं - प्रस्वेद को, कारण - शरीर पर, धारए — धारण करे । मूलार्थ — कर्मों की निर्जरा को देखने वाला साधु मल- परीषह को शांतिपूर्वक सहन करे और जब तक चारित्र - धर्म है और जब तक शरीर का भेद नहीं हो जाता तब तक शरीर में प्रस्वेद को धारण करे । टीका - प्रस्वेद आदि के कारण साधु के शरीर पर अगर मल जम गया हो तो निर्जरा की अपेक्षा रखने वाला साधु उसके कष्ट को सुख पूर्वक सहन करे, क्योंकि इस प्रकार के कष्टों को भली प्रकार सहन करने से ही कर्मों का शीघ्र क्षय होता है, अतः जिसने श्रुत और चारित्र रूप श्रेष्ठतम आर्य धर्म का अनुसरण किया है ऐसा साधु जब तक शरीर का भेद — स्थिति है, तब तक उस प्रस्वेदजन्य मल को वह शांतिपूर्वक धारण किये रहे । इस कथन का अभिप्राय यह है कि जिन मुनिजनों का शरीर शीतोष्ण और आतपादि से खिन्न हो श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 144 / दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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