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________________ है, क्योंकि जिनके पास वस्त्र नहीं उनके लिए दोनों ही ऋतुएं कष्टदायक हैं। इसी हेतु से वृत्तिकार "लिखते हैं कि- .. _____ 'जिनकल्पापेक्षं चैतत् स्थविरास्तु सापेक्षसंयमत्वाद् वस्त्रादि सेवन्तेऽपि' यह सूत्र जिनकल्पी साधु की अपेक्षा से कहा गया है और स्थविरकल्पी साधु तो प्रमाणपूर्वक अपेक्षित वस्त्रों का सेवन करते ही हैं, अतः शास्त्राज्ञा के अनुसार दोनों ही कल्पों में उक्त परीषह को सहन करने का विधान है। इस सारे कथन का सारांश केवल इतना ही है कि उक्त परीषह को समतापूर्वक सहन करना चाहिए और उक्त परीषह से घबराकर अपने ग्रहण किए हुए साधु-व्रत में किसी प्रकार की भी त्रुटि नहीं आने देनी चाहिए। . (१८) जल्ल-परीषह तृणों के स्पर्श से और गर्मी के पड़ने से शरीर का मलिन हो जाना एक स्वाभाविक बात है, इसलिए तृण-स्पर्श-परीषह के बाद अब जल्ल अर्थात् प्रस्वेद नाम के अठारहवें परीषह का वर्णन किया जाता है किलिन्नगाए मेहावी, पंकेण व रएण वा । प्रिंस वा परितावेणं, सायं नो परिदेवए ॥ ३६ ॥ क्लिन्नगात्रो मेधावी, पंकेन वा रजसा वा । . ग्रीष्मे वा परितापेन, सातं नो परिदेवेत || ३६ ॥ पदार्थान्वयः—किलिन्नगाए—प्रस्वेद से भीगे हुए गात्र अर्थात् शरीर का, मेहावी-बुद्धिमान्, पंकेण—कीचड़ से, व—अथवा, रएण-रज से, वा—परस्पर, प्रिंसु-ग्रीष्म के, वा—अथवा, परितावेणं—परिताप से, सायं—साता—सुख की, नो परिदेवए—इच्छा न करे। मूलार्थ—पसीने के कारण शरीर गीला हो गया हो अथवा कीचड़ लिपे जैसा हो गया हो तथा रज से एवं ग्रीष्म तथा शरद् ऋतु के परिताप से शरीर पर मल जम गया हो तो भी बुद्धिमान् साधु सुख की इच्छा न करे। टीका ग्रीष्म और शरद् ऋतु में होने वाले परिताप के कारण शरीर में अधिक प्रस्वेद आ गया हो और उसी के कारण शरीर भीग गया हो तथा उस पर रज के पड़ने से वह कीचड़ लिपे जैसा बन गया हो तो भी बुद्धिमान साधु उस समय सुख की अभिलाषा न करे, अर्थात् यह शरीर पर कीचड़ जैसा बना हुआ मल कब दूर होगा, और कब मुझे सुख की प्राप्ति होगी, इस प्रकार की व्यक्त अथवा अव्यक्त भावना को अपनी अन्तरात्मा में कभी स्थान न दे, क्योंकि जिसने शरीर का ममत्व ही त्याग दिया है उसके लिए फिर शरीर पर मल हो तो क्या? और प्रस्वेद हो तो क्या? इसमें तो साधु को किसी भी प्रकार का भय नहीं, उसने तो शरीर के श्रृंगार का प्रथम से ही त्याग कर रखा है। इसलिए श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 143 । दुइअं परीसहज्झयणं
SR No.002202
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages490
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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